पहाड़ों का रहवासी समाज अपनी उत्तराखण्डी सभ्यता और संस्कृति से हो रहा विमुख
मनवर लाल भारती
प्रधानाचार्य इंटर कॉलेज पोखरी अजमीर, जनपद पौड़ी गढ़वाल
अपनी उत्तराखंड की पुण्य धरती पर प्रसिद्ध छायावादी कवि चंद्र कुमार बत्र्वाल जी की ये काव्य पंक्तियां उनके अपने हृदय की विरह वेदना को यहां की बलखाती नदियों की धारा में इस प्रकार रहस्यवादी भाव प्रकट कर रही है :-
मेरी बाहें सरिता उसी आकुल हो कर ।
दिशा दिशा में ढूंढ रही हैं प्रिय सागर को ।।
आकुलता और व्याकुलता ये जिन्दा आत्मा में अपनों से मिलने की छटपटाहट है, यह छटपटाहट अपनी जन्मभूमि से लेकर अपने प्रियजनों तक सीमित नहीं रह पाती है, बल्कि मातृभूमि के कण-कण में हमारे प्राणों का समर्पण हो और अपनों के प्रति हमारा सच्चा प्यार और जन्म भूमि के प्रति हमारा गहरा लगाव होता है, परंतु आज वर्तमान मानव समाज, खासकर उत्तराखंड में हमारा पहाड़ों का रहवासी समाज अपने उत्तराखण्डी सभ्यता और संस्कृति से विमुख होकर एक ऐसी दुनिया में खोता जा रहा है, जहां इसमें खानपान, रहन-सहन, बोली-भाषा और पर्वतीय क्षेत्रों का जीवन क्या है? यह सब कुछ जानकारियां आज की नई पीढ़ी में कहीं भी देखने को नहीं मिल पाना बहुत ही कष्टप्रद है। समय का प्रवाह किसी का इंतजार नहीं करता है और मनुष्य में बुद्धि की स्थिरता और समानता भी सदैव एक जैसी नहीं रहती है। प्रकृति और समय दोनों मनुष्य की अपनी मुट्ठी में हो, ऐसा सोचना हमारी नादानी होगी। प्रकृति का उपहार हमारे उत्तराखंड के आंचलिक परिवेश में जिस प्रकार से अन इच्छित बदलाव देखे जा रहे हैं वह निश्चित रूप से यहां की नैसर्गिक छटा के लिए और यहां की पारिस्थितिकीय तंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। हमारा इस धरा के प्रति जो असीम लगाव और समर्पण था, वह अब किसी में भी न दिखाई देना एक चौंकाने वाला दृश्य समाज में दिखाई दे रहा है।
शीतल नदी घाटियों का यह प्रदेश जहां हर मनुष्य का सरल स्वभाव बिना कुछ कहे सब कुछ कह देता था कि यहां के लोगों में इतना शांत और निष्ठावान का रुप इनमें ईश्वर का ही वरदान है, जिनके ठिगने और गठीले शरीर में शक्ति का जो पुंज है वह इस प्रदेश की आबोहवा और यहां की मिट्टी में पैदा होने वाले अन्न का संजीवनी रूप है, परंतु अचानक खेत खलियानों का बंजर दृश्य और गांव के खण्डहर अवशेषों के रूप में तब्दील होने की दशा हमें यह संदेश दे रहा है कि जिस सभ्यता और और संस्कृति के निर्माण में उत्तराखंड के जन मानस ने अनेकों प्रयोग और यहां की प्राकृतिक संरचना के अनुसार जो जलवायु पाई है उसके अनुसार ढलने के अपने अनुभव पीढ़ी दर पीढ़ी जो आगे बढ़ाई गई थी वह अब नहीं रही। हम बस शहरों की दिखावटी और बनावटी रूप में अपनी इन सुंदर वादियों में प्रवासी भाई बहन बनकर उत्तराखण्डी तीज त्यौहारों की औपचारिकता तक सीमित हो गए हैं। इस उपभोक्तावादी सभ्यता और संस्कृति ने पूरे विश्व में अपना जो रुप दिखाया है, उसमें मनुष्य की जीने की जिजीविषा का भटक जाना पूरी प्राणी जगत के लिए एक खतरा सा है, यह चेतावनी हमारे वैज्ञानिक और प्रबुद्ध दार्शनिक वर्ग दे चुके है, परंतु मनुष्य की हठधर्मिता के आगे आज तक किसी की नहीं चली, यहां बड़े बड़ों ने हमेशा घुटने टेक दिए थे और यह क्रम इस धरती पर विज्ञान की उन्नति के दौर से चल रहा है। अब वर्तमान मानव सभ्यता इतना हठी और स्वार्थी हो चुका है कि उन्हें लौटाना अब किसी के भी बस में नहीं रहा। हम आज एक ऐसी दुनिया में कदम रख चुके हैं, जहां मानवीय नाते और रिश्तों की दुनिया उपभोक्तावादी संस्कृति पर आकर स्वार्थ लालच और औपचारिकता की आदतों की भेट चढ़ चुकी है। आप इस दौर में किसी को समझाने की कोशिश में खुद एक उपहास का पात्र बन कर रह जाओगी। ऐसे दौर में मानव सभ्यता और संस्कृति में मानवीयता से जीने की शिक्षा को लौट आने की अति आवश्यकता है।
हमने संभवत है अपने उम्र के 50 वर्ष पूर्व में अपने पूर्ण होशो हवाश की स्थिति में उत्तराखंड की पर्यावरण की दृष्टि से और यहां की अच्छी और बुरी परंपराओं को जितनी नजदीकी से देखा और भोगा है संभवत उसका उल्लेख करने पर आज की नई पीढ़ी को विश्वास ही नहीं होगा कि पर्यावरण की दृष्टि से उस समय सर्दियों में एक माह से डेढ़ माह तक होने वाली वर्षा के पश्चात् जो बर्फबारी होती थी उसका नजारा सुंदरता की दृष्टि से अति आकर्षक, पर्यावरण की दृष्टि से जल संचय, आद्र्रता की सृष्टि से धरती पर नमी का रहना और गरीब जनों एवं जीव-जंतु के लिए शरीर की साधना का अनोखा रूप था। इस मौसम में यहां का सागरों (ठंडे स्थान) से भाबरों (गर्म स्थान) तक हर नदी घाटियों का प्रवासी जन जीवन अन्न-धन और पशु धन पर आधारित एक लंबा जीवन जीने का रहा। आज यह एक काल्पनिक सपना जैसा लगता है। भले ही उस समय का जीवन शिक्षा का अभाव स्वास्थ्य की असुविधाएं और आवागमन के भीषण अभावों का समय था, परंतु मानव समुदाय के पारस्परिक संबंध प्रगाढ़ थे। इन्हीं प्रगाढ़ संबंधों से यहां के जन मानस ने आपसी विश्वास एक दूसरे के सहयोग और मनोरंजन के लिए अनेकों सांस्कृतिक परंपरा को जन्म की दिया था। आज इस विषय पर यदि शोध किया जाए तो विज्ञान की अनेकों विधाओं का ज्ञान और प्रयोग देखने को मिलेगा।
उत्तराखंड की लोकाचार परम्पराओं पर अभी तक जो भी शोध हुआ है वह कहीं न कहीं उस दिशा की ओर जाने से भटक गया है, जहां उस शोधपरक ज्ञान से यहां के जन मानस को लाभ मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाया। हमें अपने बाल्यकाल में देखे गए उन धार्मिक कर्मकांडो की घटनाएं बहुत अच्छी तरह से याद है जिन घटनाओं ने हमारे मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ी थी, जिसके घातक परिणाम भी हमें झेलने पड़े, फिर भी यहां का जन मानस एक असीम विश्वास के साथ उन धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा रहा। उस समय हम उन परंपराएं को समझ नहीं पाए, क्योंकि हमारे अपने मानव समुदाय में समझने और समझाने की क्षमता रखने वाले लोग नहीं थे। इस कारण हमारा रुढ़िवादी विचारधारा में उन परंपराओं को अंधविश्वासी तौर तरीके से ढोते रहना बस एक मजबूरी थी। जैसा जिसने कहा एक विश्वास बनता गया कभी भी मन में प्रश्न पैदा नहीं हुआ कि सर्दियों में मेरी मां हमारे पेट पर सोते समय हल्की गर्म राख क्यों मलती थी। अब याद आती है कि एक तो उस समय आज की तरह सोने के लिए बिस्तर नहीं हुआ करते थे, दूसरा सर्दियां हड्डी कंपा देने वाली हुआ करती थी। उस रासायनिक राख मलने से क्या लाभ होता था, हमें कुछ भी पता नहीं था। हमारे गांवों में ऐसे कई घरेलू इलाज थे, जो आज भी हमें अच्छी तरह से याद हैं, परंतु जब बीमारी से कुछ ज्यादा ही परेशानियां होती थी तो देवी देवताओं को नचाए जाने का अनुष्ठान या विधान जागर प्रथा के रूप में आयोजन किए जाते थे। इनसे कितना लाभ मिलता था हमें कुछ पता नहीं होता था लेकिन हमारे बुजुर्गों का विश्वास जरूर मजबूर होता था।
हमारा उत्तराखंडी रहवासी नदी घाटियों में आज भी उसी आस्था और विश्वास के साथ अपनी इस पवित्र धरा के प्रति समर्पित तो है परंतु अभाव और गांवों में पलायन की मार से पसरती जा रही वीरानी से त्रस्त द्वन्द्वात्मकता की स्थिति में जी रहा है कि शहर जाऊं या गांव में रहूं। जब कुछ भाई बंधु या बुजुर्ग शहर जाते हैं तो मुश्किल ही एक सप्ताह में उगता कर अपने गांव लौटने का मन बना लेते हैं, परंतु जब गांव आ जाते हैं तो गांव की सूनी चौक डिंड्याली (घर आंगन) पुरानी यादें दोहरा-दोहरा कर मन और हृदय पर आघात करती हैं फिर यह कसक यहां की लोगों को एक ऐसी दिशा की ओर धकेल देती है जो किसी भी रुप में अच्छी नहीं है। अर्थात हम अपनी उस आत्मीयता से भटक कर रह जाते हैं जो हमारी एक सरल निष्ठावान हृदय के रूप में पहचान हुआ करती थी।
विगत कई वर्षों से उत्तराखंडी समाज में कहीं प्रकार के बदलाव देखने को मिले, परंतु इन बदलावों में उत्तराखंड के गांव के गांव वीरानी और उदासी की भेंट चढ़ते गये। इनकी वीरानी और उदासी तोड़ने के लिए गांव तक सरकारों द्वारा सड़कों का जाल बिछाया तो गया है लेकिन यह सड़कें भी अपने रहवासियों के इंतजार में खामोश स्थिति में रहकर उजड़ बिजड़ जाती हैं। कभी कभार इनकी खामोशी को प्रवासी भाई बंधु शादी ब्याह या तीज-त्योहारों पर अपनी शहरी आवरण में आधुनिक बोली भाषा से तोड़ देते हैं, फिर इनके जाने के बाद वही उदासी छा जाती है।
हम न जाने किस दुनिया की तलाश में एक दूसरे से विच्छिन्न होकर शहरों में बस कर बंद कमरों में कौन सा सपना देखना चाह रहे हैं? यह परिदृश्य मेरे लिए तो चौंकाने वाला हमेशा से रहा है परंतु उत्तराखंड का पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में जाने पर तो मानो पलायन के भूचाल ने उस उत्तराखंड की नक्शे को बदल कर रख दिया। जब सन् 1992-93 के उत्तराखंड का आंदोलन पृथक राज्य की अवधारणा के रूप में हमारी भावनाओं और विचारों का आकार स्वरूप दिया गया था। आज हमारे पास वह उत्तराखंड किसी भी दशा में नहीं दिखाई देता है। आंदोलन के समय हमने कहा था कि कोदा झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। क्या हुआ आज न कोदा है न झंगोरा है बस अब यहां अंधेरा ही अंधेरा रह गया है। हमारी अपनी मातृभूमि के प्रति आकुलता और व्याकुलता मात्र से कुछ भी होने वाला नहीं है। हमारी नई पीढ़ी शहरों के रेडीमेड फास्ट फूड पर निर्भर होकर रह गई है। उनका पहनावा रेडीमेड कपड़ों का विज्ञापन घेर चुका है। उन्हें कोदा, झंगोरा, धान, कौणी, गहथ, तोर, काले गोरे भट्ट, सौन्टा आदि पहाड़ी फसलों या खाद्यान्नों से कोई लेना देना नहीं है, उन्हें तो बस आधुनिक उपभोक्ता वादी संस्कृति ने जो दिया है वह उसी के हो चुके हैं। आप इस पीढ़ी को न समझा सकते हैं और न ही हम विश्वास रखें कि ये उत्तराखंडी सभ्यता और संस्कृति को समझ पाएंगे। हम नई पीढ़ी में जो कुछ भी बदलाव देख रहे हैं उसमें इनका अपनों के प्रति न लगाव न समर्पण और न ही रिश्तों के प्रति संवेदनशीलता रह गई है। ऐसा लगता है मानो सब कुछ मर चुका हो।
उत्तराखंड का आंचलिक स्वरुप नदी घाटियों और मध्य हिमालय में बसे गांवों का है। इस प्रदेश के पंच केदार और पांच बद्री तीर्थंकरों के लिए धार्मिक आस्था से अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य साहित्यकारों के लिए अद्भुत साहित्य सृजन में ज्ञान दायक रहा, दार्शनिक जनों के लिए ईश्वरीय सत्ता के उत्स तक पहुंचने की जिज्ञासा का पवित्र स्थल, धार्मिक आस्थावानों के लिए मोक्ष की पुण्य धरा रही है। यह सब कुछ इस धरा की प्राकृतिक बनावट ने ईश्वरीय रूप में यहां के जन मानस को उनके शारीरिक रूप सौंदर्य विश्वसनीय आचरण और परिश्रम के प्रति निष्ठा क्या होती है पुण्य उपहार स्वरूप वरदान दिया है। हमें अपने उत्तराखंड की चौक डिंड्याली, फसलों से भरे खेत खलियान, पशुधन से भरे गोशाला व गुठ्यार और आंगन के आस पास पक्षियों का मधुर कोलाहल बहुत अच्छी तरह से याद है। आज यह सब कुछ एक सपना जैसा है। ऐसा न जाने ने क्या हुआ कि हम सभी उत्तराखंडी रहवासी पलायन की जादुई तिलिस्म में फंस गए। यह क्यों हुआ और कैसे हुआ उत्तर तो सरल और सीधा है पर हमारी स्वेच्छा और भोग विलासित मृगतृष्णा ने हमें उन्मादी बनाकर अपने घर आंगन को छोड़ने पर शायद विवश कर दिया। अब स्थिति यह है कि हम और हमारी नई पीढ़ी ग्रामीण जीवन जीने की शैली के काबिल नहीं रहे।
रोजगार के लिए चहल-पहल और उत्पादन के लिए विजन जरुरी
उत्तराखंड के अस्तित्व की रक्षा में गांव के पुनर्जीवित करने की ठोस योजना में शिक्षा स्वास्थ्य और रोजगार प्रमुख विषयों पर ठोस और कठोर नीति लागू करने की नितांत आवश्यकता है और यह सरकारों द्वारा लागू न करने की ढुलमुल नीति विगत 25 वर्षों में खूब देखी गई है। सबसे ज्यादा सत्यानाश हमारी शिक्षा के क्षेत्र में हुआ, जबकि अच्छी शिक्षा के लिए सबसे ज्यादा प्रयोग और प्रशिक्षण इस शिक्षा के क्षेत्र में हुए और आगे भी गतिमान है। इस क्षेत्र में हमारे प्रयोग नासा और इसरो की प्रयोगशालाओं को जैसे पीछे छोड़ गए हों। दूसरा स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारा उत्तराखंड का पर्वतीय अंचल हमेशा से पीछा रहा। आज रासायनिक खाद से उत्पादित खाद्यान्नौं के सेवन से ऐसे रोगों ने हमें घेरा लिया है कि जिसका उपचार गांव में संभव नहीं है सबको शहरों की ओर भागना पड़ता है। रही अब रोजगार की बात तो वीरान और सुनसान गांवों में क्या रोजगार हो सकता है? रोजगार के लिए चहल-पहल जरुरी है और उत्पादन के लिए विजन जरुरी है परंतु हमारे पास न विजन है और न ही रोजगार के प्रति आकुलता व व्याकुलता। अगर ऐसा होता तो हमारे पालतू जानवर मानव संसर्ग के लिए आवारा बाजारों में न भटकते हुए दिखाई देते। बस सब कुछ एक निराशाजनक स्थिति में गांव के गांव छोड़कर एक निगोड़ी दुनिया में बसते चले गए और शहरों की भीड़ में खो कर रह गये।