जल निकासी प्रबंधन में लीपापोती

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गर्मियों की तपिश के बाद प्री मानसून ने उत्तराखंड में दस्तक दी है। मानसून से पूर्व की बारिश ने जहां लोगों को गर्मी से राहत दी है तो वही नगरीय व्यवस्था पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे बड़ी समस्या उन बड़े नगरों में है जहां विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी बिल्डिंग और दूसरे निर्माण किए गए हैं जिस कारण जल निकासी के सभी स्त्रोत या तो जर्जर हालत में है या फिर उन्हें सुचारू रूप से चलाने के लिए कोई प्लानिंग ही नहीं की गई। मानसून पूर्व की थोड़ी सी बरसात ने ही शहरों की पोल खोल कर रखती है। कहने को तो ग्रीष्म ऋतु के दौरान ही जिला प्रशासन की ओर से मानसून के दौरान आने वाली समस्याओं के निराकरण के लिए सभी तैयारियां को युद्ध स्तर पर पूरा करने के निर्देश दिए गए थे लेकिन अधिकांश नगरों में यह काम केवल खाना पूर्ति के लिए ही नजर आया। राजधानी देहरादून में जिस प्रकार से भारी बरसात देखने को मिली है उसने यहां की जल निकासी की पोल भी खोल कर रख दी है साथ ही नगर निगम और जिला प्रशासन के दावों को भी हवाई साबित कर दिया जिसमें जिलाधिकारी के आदेशों के बावजूद बरसात से पूर्व नालियों एवं नालों की सफाई का काम पूरा नहीं किया जा सका। कुछ दिनों में मानसून अपना असर दिखाएगा तो उसके बाद कल्पना की जा सकती है कि नगरों में कैसे हालात पैदा होंगे? सबसे बड़ी समस्या नगरीय क्षेत्र में निर्माण को लेकर है जहां प्राधिकरण आंखें मूंद कर नक्शे पास करता है और यह तक जानने का प्रयास नहीं किया जाता कि जल निकासी के लिए बिल्डरों या दूसरे निर्माणकर्ताओं द्वारा क्या प्रबंध किए गए हैं? यही कारण है कि आज देहरादून शहर का आधा हिस्सा जल भराव से जूझ रहा है जबकि निचले स्थान पर भी जल भराव के कारण पहली बारिश में ही परेशानियां दिखने लगी हैं। समस्या यह है कि जब सब तरफ बड़े-बड़े निर्माण करते हुए नदी नालों को बंद कर दिया गया है तो इन परिस्थितियों में आखिर बारिश का पानी जाएगा कहां? एक सुव्यवस्थित एवं नियोजित नगर में निर्माण के साथ-साथ ही सीवर एवं जल निकासी की व्यवस्था को प्रमुखता से अमल में लाया जाना चाहिए लेकिन यहां जिला प्रशासन से लेकर प्राधिकरण एवं निर्माण एजेंसियां लाख परेशानियां उत्पन्न होने के बावजूद भी टस से मस होने को तैयार नहीं है। नगर क्षेत्र में सीवर का काम भी अभी अधर में ही लटका हुआ है और ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां या तो सीवर चालू ही नहीं हुए या फिर आधे अधूरे लटके हुए हैं। अभी तो मानसून की शुरुआत होनी है और अभी से यदि व्यवस्थाएं पटरी से उतरती नजर आ रही हैं तो आने वाले दिन कितने कष्टकारी साबित होने वाले हैं इसकी कल्पना वर्तमान हालातो से की जा सकती है। यदि अभी भी धरातल पर उतरकर युद्ध स्तर पर थोड़े प्रयास किए जाएं तो कुछ हद तक मानसून के दौरान जल भराव से थोड़ी राहत मिल सकती है लेकिन ना तो निगम के पास पर्याप्त संसाधन उपलब्ध है और ना ही अधिकारियों के पास इच्छाशक्ति। ऐसे हालातो में आम लोगों के पास सिवाय व्यवस्थाओं को कोसने के कुछ अधिक नहीं रह जाता है। जल निकासी प्रबंधन एक दीर्घकालीन व्यवस्था है जो महज चंद दिनों में सुधरने संभव नहीं है लेकिन प्रशासन अक्सर मानसून से पूर्ण चंद दिनों का अभियान चलाकर सिर्फ और सिर्फ लीपा पोती ही करता है जिसका ना तो कोई असर नजर आता है और ना ही चंद दिनों का यह सफाई अभियान कारगर साबित होता है।

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