संपादकीय

ब्याज का जानलेवा चक्रव्यूह

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अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए लोग अक्सर बैंक या फिर निजी फाइनेंस कंपनियों का रास्ता देखते हैं। अक्सर तमाम औपचारिकताओं के कारण इन संस्थाओं से पैसा मिलने की संभावनाएं जब कम होती है तो लोग ऐसे लोगों के दरवाजे तक जाते हैं जो मोती ब्याज दर लेकर पैसा देते हैं। यहां पैसा तो आसानी से मिल जाता है लेकिन उसके बदले जो कागजात रखने पड़ते हैं वही बाद में मुसीबत बन जाते हैं। इसके अलावा एक बार जब पैसा लेने वाला ब्याजखोरों की गिरफ्त में चढ़ता है तो उसे बाहर निकालने के रास्ते भी बंद होते चले जाते हैं। निजी फाइनेंसर द्वारा ब्याज की दर न्यूनतम 10% से लेकर 25 से 30% तक पहुंचती है जिसके चक्रव्यूह से निकल पाना मुश्किल होता चला जाता है। ब्याज की ही रकम चुकाने के लिए दोबारा लोन लेना पड़ता है और फिर लोन का यह क्रम ब्याज के बोझ में दबता ही चला जाता है और मूल रकम जस की तस खड़ी है। ब्याज के पैसों को लेकर कई अपराधिक घटनाएं भी सामने आई है जिसमें हालिया मामला देहरादून में एक हत्या की घटना से भी जुड़ गया है। यहां ब्याज के पैसे के लेनदेन को लेकर एक व्यक्ति को मौत के घाट उतार दिया गया जबकि तीन लोग घायल हो गए। हत्यारा और उसकी टीम ब्याज के ही लेनदेन का काम करते हैं और अक्सर ब्याज ना देने की सूरत में अपनी हदों को भी पर कर जाते हैं। ऐसे भी कई मामले हैं जिनमें मूल रकम से कहीं गुना ज्यादा ब्याज चुकाया जा चुका है लेकिन आज भी मूल रकम पूर्व की स्थिति में ही बनी हुई है। ब्याजखोरों पर नियंत्रण रखने के लिए पैसे तो नियम कानून बनाए गए हैं लेकिन ब्याज खोरों ने इसका भी तोड़ निकाला है। यह लोग भले ही कागजों में लिखा पढ़ी के दौरान ब्याज की दर कम दर्शाते हो लेकिन मौखिक तौर पर ब्याज की दर जो वसूली जाती है वह कहीं अधिक होती है। सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारतवर्ष में निजी ब्याज पर पैसे देने का बड़ा कारोबार चलता है और यह कारोबार इस लिए भी फल फूल रहा है क्योंकि यहां लोगों को कम औपचारिकताओं के साथ तुरंत पैसा प्राप्त होता है। हालांकि निजी स्तर पर पैसा देने वाले कुछ लोग आज भी आपसी संबंधों एवं समाज को ध्यान में रखते हुए निश्चित ब्याज दर पर पैसा देते हैं लेकिन बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो ब्याज की रकम एक दिन भी विलंब होने पर हदों को पार करने से पीछे नहीं हटते। यहीं से अपराध की शुरुआत भी होती है जिसमें कुछ लोग या तो कर्ज के बोझ तले अपना जीवन समाप्त कर लेते हैं या फिर कुछ मारे जाते हैं। सरकारी एजेंसियों की भारी भरकम कागजों वाली औपचारिकता के कारण निजी ब्याज खोरों का धंधा उफान पर है और इन पर प्राय नियम कानून भी कार्य नहीं करते। पैसा वसूलने के लिए दबंग लोग रहते हैं जो हर हाल में पैसा वसूलने से पीछे नहीं हटते। ना चाहते हुए भी समाज का एक बड़ा वर्ग स्थानीय तौर पर पैसा देने वाले लोगों की शरण में जाता है और फिर ब्याज के चक्रव्यूह से निकलना आसान नहीं रहता। इसमें कोई शक नहीं है कि बेहद कम समय में आवश्यकता के अनुरूप तत्काल पैसा प्राप्त तो हो जाता है लेकिन पैसा लेने के साथ ही ब्याज का अंबार भी खड़ा होता चला जाता है। कोशिश यही करनी चाहिए कि ब्याज को लेकर की जाने वाली लिखा-पढ़ी पुख्ता तौर पर की जाए एवं जहां तक संभव हो, कम से कम समय में पैसा चुकाने की कोशिश की जाए। यदि कोई भी फाइनेंसर अवैध तरीके से पैसों के लिए दबाव डाल रहा हो तो इसकी शिकायत पुलिस से की जा सकती है।

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