संपादकीय

शोरगुल में भी दोहरे मापदंड

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उत्तराखंड के तीर्थ स्थलों पर इन दोनों एक नया ट्रेंड चल पड़ा है जिसमें मंदिर के प्रांगण में भजन कीर्तन और ढोल नगाड़ों के साथ भजन कीर्तन चल रहे हैं। कुछ ऐसे यंत्र भी बजते हुए नजर आ रहे हैं जो काफी ध्वनि उत्पन्न करते हैं और दावा दाव किए जा रहा है कि इनका कंपन कहीं ना कहीं पहाड़ों की शांति को भंग करता है। हाल ही में केदारनाथ धाम में ऐसे ही एक ग्रुप द्वारा धार्मिक प्रदर्शन के दौरान विरोध स्वरूप बवाल उत्पन्न हुआ था। स्थानीय पुरोहित द्वारा केदारनाथ प्रांगण में बड़े-बड़े ढोल बजा रहे लोगों को ऐसा करने से मना किया गया इसके बाद उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के सभी तीर्थ स्थलों पर ढोल नगाड़ों के शोर को प्रतिबंधित करने की मांग उठने लगी। तीर्थ स्थलों पर यह सब कम भी हुआ लेकिन इधर कार्यवाही के दोहरे मापदंडों पर भी सवाल उठने लगे। भक्ति भाव में डूबे भक्त जब अपने आराध्य के निकट पहुंचते हैं तो भावनाएं अविरल तरीके से बहने लगती है। कुछ गानों और नृत्य के माध्यम से भक्ति भाव का प्रदर्शन करते हैं तो कुछ मौन और ध्यान में ही भक्ति का रास्ता तलाशते हैं। रास्ते अलग-अलग है लेकिन उद्देश्य सबका अपने आराध्य को अपने मन और आत्मा से जोड़ने का होता है। बद्रीनाथ और केदारनाथ की पहाड़ियों के बीच में स्थित है जिसमें केदारनाथ और गंगोत्री धाम खास तौर से संवेदनशील क्षेत्र में माने जाते हैं। विरोध इसी बात का हो रहा है कि इन तीर्थ स्थलों पर ढोल नगाड़ों का शोर ना किया जाए क्योंकि इससे संवेदनशील ग्लेशियर प्रभावित हो सकते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि ढोल नगाड़ों से ग्लेशियर इतने अधिक प्रभावित हो सकते हैं तो उद्यान कंपनियों के उड़नखटोलों का शोरगुल क्या पहाड़ों की संवेदनशीलता को प्रभावित नहीं करता? यहां स्थानीय संत पुरोहित और धार्मिक प्रदर्शन करने वालों का विरोध करने वाले ठोस तर्क प्रस्तुत नहीं करते और ना ही कोई हेली कंपनियों की सर्विस को लेकर मुंह खोलने को तैयार है। निश्चित तौर पर संवेदनशील क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के शोर का विरोध होना चाहिए और यदि एक पक्ष को प्रतिबंध करने की मुहिम छिड़ सकती है तो ऐसा शोर जो पहाड़ों के ऊपर सीधे तौर पर ग्लेशियर को प्रभावित कर सकता है उनके खिलाफ मुहिम चलाने को लेकर दोहरे मापदंड क्यों? शायद इसके मायने तो यही हुए कि राजस्व अर्जन का माध्यम भक्ति भाव पर भारी पड़ रहा है। यह काफी बचकाना है कि मंदिरों के बाहर धार्मिक गीत प्रदर्शन करने वालों भक्तों का अपमान किया जाए और पूंजीपतियों की संचालित व्यवस्थाओं पर मौन धारण कर लिया जाए। बात यदि शोरगुल के कारण पहाड़ों के प्रभावित होने की है तो दोनों ही मामलों में गंभीरता से विचार होना चाहिए।

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