संपादकीय

संतुलन खो रहा पर्यावरण

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उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्र इन दिनों भीषण गर्मी के प्रकोप से जूझ रहे हैं। आश्चर्य यह है कि अपने खुशनुमा मौसम के लिए विख्यात देहरादून में तराई की गर्मी जैसे हालात बन गए हैं और तापमान 40 के आंकड़े से भी पार होता हुआ नजर आने लगा है। पहाड़ों में जरूर बरसात होने के कारण थोड़ा मौसम राहत भरा नजर आ रहा है जिससे चार धाम यात्रियों को भी राहत मिल रही है लेकिन पहाड़ों से नीचे उतरते ही श्रीनगर से लेकर हरिद्वार और हरिद्वार से लेकर देहरादून तक भीषण गर्मी से यात्री और स्थानीय लोग जूझ रहे हैं। पिछले 20 वर्षों में जिस प्रकार से उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों में अनियोजित विकास हुआ है उसमें ना जाने कितने हजारों लाखों पेड़ों को भी अपना बलिदान देना पड़ा है। देहरादून जो कभी थोड़ी सी गर्मी बढ़ने पर बादलों से घिर जाता था, आज वहां 40 डिग्री पार होने के बाद भी बारिश का दूर-दूर तक नामो निशान नहीं है। शुष्क मौसम से मैदानी क्षेत्र प्रभावित है और अब स्थिति यह हो गई है कि भीषण गर्मी और सूर्य की तपिश के कारण दिन के समय सड़कों पर भी आवाजाही कम नजर आने लगी है। यह चिंता का विषय है कि ऐसे हालात बनाने के लिए क्षेत्र का नियोजित विकास एवं निर्माण कार्यों के नियम कानून को लेकर सरकार की लापरवाही भी जिम्मेदार है। बड़े-बड़े वृक्ष आच्छादित क्षेत्र को कंक्रीट का जंगल बनाने के लिए काटा जा चुका है और अभी ना जाने सरकार के कितने प्रोजेक्ट प्रस्तावित है जिनके कारण नगरों की शोभा बने वृक्षों को काटा जाएगा। समय आ गया है कि हर व्यक्ति को अपने क्षेत्र का स्वरूप एवं पर्यावरणीय संतुलन बचाने के लिए जन आंदोलन जैसा कदम उठाना होगा। विकास की आड़ में नगरों का विनाश नहीं किया जा सकता और यदि कोई ऐसा करता है तो सम्भ्रांत लोगों को अनिवार्य तौर पर इसका विरोध करना चाहिए। विकास की आड़ में न केवल राजधानी देहरादून बल्कि पहाड़ों से लेकर मैदान तक के दूसरे क्षेत्रों में भी खुलेआम आरियां चली हैं। कहने को तो निर्माण का जिम्मा संभालने वाली प्राधिकरण संस्थाओं ने कई नियम कानून बनाए हैं जिसमें वर्षों के पतन को प्रतिबंधित किया गया है लेकिन ऐसे असंख्य उदाहरण सामने है जहां वृक्षों की बलि चढ़ा कर कंक्रीट के महल खड़े कर दिए गए हैं। उत्तराखंड में पर्यावरण का बिगड़ा मिजाज यूं ही नहीं बना है बल्कि इसके पीछे पूरी तरह से मानवीय कारण ही जिम्मेदार हैं। मकान और बहुमंजिला इमारतें तो बनती है लेकिन वृक्ष लगाने के नाम पर कोई जिम्मेदारी तय नहीं है। वृक्ष नहीं लगा सकते तो यह भी निश्चित होना चाहिए कि वर्षों से लगे शोभायमान वृक्षों को काटने का अधिकार भी किसी को नहीं मिलना चाहिए। अपनी जिस खूबसूरती और पर्यावरण संतुलन के लिए देहरादून जैसा शहर विश्वविख्यात था वृक्षों के असीमित कटान के कारण अब वह भी अपनी पुरानी पहचान खो चुका है। आज उत्तराखंड के पहाड़ों के मैदानी क्षेत्रों में ठीक वैसे ही हालात बनते नजर आ रहे हैं जैसे की उत्तर प्रदेश के भीषण गर्मी वाले क्षेत्रों में नजर आते हैं। कहीं ना कहीं हमने संभलने में अब बहुत देर कर दी है लेकिन यदि अभी भी नहीं जागे तो आने वाले समय में गर्मी का प्रकोप इससे भी कहीं अधिक उग्र रूप में देखने को मिलेगा।

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