संपादकीय

नष्ट होती वन संपदा

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हर साल उत्तराखंड की जंगलों को उतना नुकसान अवैध शिकारी और वन माफियाओं की गतिविधियों से नहीं होता जितना वनों में लगने वाली आग से होता है। उत्तराखंड की यह बेबसी है कि तमाम प्रयासों के बावजूद यहां वन क्षेत्र को जलने से बचाने का कोई स्थाई समाधान अब तक तलाश नहीं जा सका है। प्रदेश में एक बार फिर जंगल धधक रहे हैं और सबको इंतजार है तो आसमानी कृपा का ताकि यह धधकते जंगल शांत हो सके। गर्मियों की शुरुआत होने के साथ ही अब तक उत्तराखंड के जंगलों में 886 घटनाएं हो चुकी हैं। जिसकी चपेट में आकर अब तक पांच की मौत और पांच लोग घायल हो चुके हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि अब तक 1107 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। उत्तरकाशी के जंगल इस अग्निकांड से सबसे अधिक प्रभावित नजर आ रहे हैं। यहां अब तक 19.55 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की भेंट चढ़ गए हैं। आग के कारण न केवल वन्य जीव के जीवन पर संकट खड़ा हुआ है बल्कि ग्रामीणों के आगे भी सांस लेने में दिक्कत जैसी दिक्कतें नजर आने लगी हैं। वन विभाग के पास भी इतने संसाधन नहीं है कि वह अग्निकांड की इन घटनाओं पर रोकथाम लगा सके या फिर लगी हुई आग को बुझाने के लिए सार्थक प्रयास कर सके। गढ़वाल के मुखेम रेंज के डांग, पोखरी गांव, डुंडा रेंज के चामकोट व दिलसौड़ क्षेत्र, धरासू रेंज में फेडी व सिलक्यारा में आग से करोड़ों रुपए की वन संपदा नष्ट हो चुकी है। वनाग्नि को लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हाई लेवल मीटिंग भी ली है और साथ ही वन विभाग को जंगलों में लगी आग पर काबू पाने के लिए अतिरिक्त संसाधन के साथ-साथ बजट भी उपलब्ध कराया है हालांकि बावजूद इसके जंगलों में लगी आग पर नियंत्रण न पाना बेहद चिंता जनक है। यदि जल्द ही बरसात ना हुई तो अग्निकांड का क्षेत्रफल अभी और अधिक बढ़ने वाला है जिससे वन्यजीवों के साथ-साथ आज प्रभावित क्षेत्र के आसपास रहने वाले लोग भी प्रभावित होंगे। यहां ग्रामीणों की भी या जिम्मेदारी बनती है कि वह आज से बचने के उपाय एवं पर अमल करें साथ ही वन विभाग को भी पूर्व से ही ग्रामीणों को आज पर नियंत्रण करने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए।

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