कमजोर होने लगे ग्लेशियर, ऊपरी परतें हुईं हल्की, अब हिमनदों के ज्यादा टूटने का खतरा बढ़ा
नई दिल्ली। ग्लेशियर का मतलब आम तौर पर बर्फ का पहाड़ होता है। जहां बारह महीने बर्फ जमी रहती है। लेकिन अब ग्लेशियर की परिभाषा बदलने वाली है। लद्दाख से लेकर उत्तराखंड और सिक्किम से लेकर अरुणाचल प्रदेश के हिमालयन क्षेत्र में इस वक्त 88 प्रमुख ग्लेशियर हैं। हैरानी की बात यह है कि यह सभी ग्लेशियर बढ़ते तापमान की वजह से बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। यही नहीं, वर्षों की रिसर्च बताती हैं कि इन ग्लेशियरों पर अब बर्फ भी कम पड़ रही है। यानी कि ग्लेशियर की सतह पतली होती जा रही है और ये अपने ऊपर पड़ने वाली ज्यादा बर्फ का बोझ नहीं सह पा रहे हैं। इसी वजह से इनका टूटना और फटना जारी है।
वैज्ञानिकों को अब चिंता सता रही है कि अगर ग्लेशियरों का इसी तेजी से पिघलना और बर्फ का कम पड़ना तथा उसकी सतह का पतला होना जारी रहा, तो मैदानी इलाकों में तबाही आनी तय है। दुनिया के प्रमुख साइंस एडवांस जर्नल में प्रकाशित हुए शोध में तेजी से पिघलते हुए ग्लेशियरों पर चिंता जताई गई है। शोध के मुताबिक हर साल तकरीबन आधा मीटर ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
रक्षा मंत्रालय के तहत आने वाले संगठन श्स्नो एवलांच स्टडी एंड एस्टेब्लिशमेंटश् (सासे) के पूर्व निदेशक अश्वघोष गंजू कहते हैं कि हिमालयन इलाके के हिमनद बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। सासे की मनाली और लद्दाख के चांगला स्थित लैब से हो रही लगातार निगरानी से इस बात का पता चलता है। गंजू कहते हैं कि न सिर्फ बर्फ पिघल रही है बल्कि उनकी एक रिसर्च में यह बात भी सामने आई थी कि बहुत ऊंचे इलाको में पड़ने वाली बर्फ की मात्रा भी अब कम हो गयी है। प्रोफेसर गंजू कहते हैं कि यह क्लाइमेट चेंज का ही असर है कि बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। हिमनदों की ऊपरी परत कमजोर होती जा रही है। ऐसे में अगर कभी भी ज्यादा बर्फबारी हुई तो बर्फ के ज्यादा दबाव से हिमनदों का टूटना और फिर तबाही मचाना स्वाभाविक होगा।
साइंस एडवांसेज जर्नल में पिघलते हुए ग्लेशियरों पर आई एक रिसर्च में इस बात पर चिंता जताई है कि जिस तरीके से ग्लेशियर पिघल रहे हैं वह आने वाले वक्त में न सिर्फ बड़ी तबाही मचाएंगे बल्कि पर्यावरण पर संकट भी पैदा करेंगे। शोध के मुताबिक पता चला है कि पिछले 40 सालों में हिमालयन रीजन के जितने भी ग्लेशियर हैं वह सभी बहुत तेजी से पिघल रहे हैं। इस शोध में 40 साल के दौरान सैटेलाइट इमेज से बहुत बारीकी से न सिर्फ भारत बल्कि नेपाल भूटान और चीन के हिमालयन रीजन को देखा गया।
शोध में सामने आया है कि 1975 से लेकर 1990 तक हर साल औसतन तकरीबन दशमलव 25 (.25 मीटर) मीटर ग्लेशियर पिघलते रहे। 1990 से लेकर सन 2000 तक तो यह भी पता चला कि ग्लेशियरों का पिघलना इतना तेजी से हुआ कि यह आंकड़ा हर साल आधा मीटर तक पहुंच गया। इस शोध के आंकड़ों पर वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक ड़ एसपी भारद्वाज कहते हैं कि ग्लेशियरों का पिघलना बढ़ते हुए तापमान का नतीजा है। उन्होंने चिंता जताते हुए कहा अगर ऐसे ही ग्लेशियर पिघलते रहे तो आने वाले वक्त में नदियों से चमोली जैसी घटनाओं के होने की संभावनाएं बढ़ती ही जाएगी।
लद्दाख में पर्यावरण को बचाने के लिए काम करने वाले सी नर्फेल बताते हैं कि कभी यहां की प्रमुख सिंधु नदी में लबालब पानी बहा करता था। लेकिन अब ऐसे हालात नहीं हैं। इसकी वजह बताते हुए नर्फेल कहते हैं कि दरअसल ऊपरी इलाकों में खासकर ग्लेशियरों में बर्फ का गिरना धीरे-धीरे कम होता रहा और सिंधु नदी में पानी का स्तर भी घटता गया। उनकी चिंता इस बात की है अगर इसी तरीके से बर्फबारी कम होती रही तो जो हैंगिंग ग्लेशियर्स कभी भी टूट कर बहुत बड़ी आपदा के रूप में मैदानी और पहाड़ी रिहायशी इलाकों में सामने आ सकते हैं।
वरिष्ठ वैज्ञानिक एसपी भारद्वाज कहते हैं कि जिस तरीके से पिघलती हुई बर्फ और कम पड़ने वाली बर्फ से ग्लेशियर की ऊपरी सतह पतली हो रही है, वह बड़ी चिंता की बात है। हालांकि उत्तराखंड में हुई घटना के कारण जानने के लिए अभी वैज्ञानिकों की पूरी टीम लगी हुई है, लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जिस ग्लेशियर से इतनी बड़ी घटना हुई उसकी ऊपरी सतह बहुत कमजोर रही और अचानक बर्फ के ज्यादा गिरने से ग्लेशियर पर दबाव पड़ा और उसने टूट कर तबाही मचा दी।