मनवर लाल भारती
प्रधानाचार्य जनता इंटर कॉलेज पोखरी अजमीर
कवि जयशंकर प्रसाद जी के प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी का प्रथम छ्न्द हमारी प्रकृति के प्रति अति संवेदनशीलता के चिन्तन को दर्शाती है और हमें यह संदेश देता है कि यदि हम प्रकृति के साथ जीवन जीना नहीं सीख पाए तो महाप्रलय के आने पर हमारे लिए महाकवि के कामायनी महाकाव्य के इस छन्द को आत्मसात् कर स्वीकार करना ही पड़ेगा। महाकाव्य का उनका यह प्रथम छंद सच सही कहता है:-
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।।
हम जब भी जीवन की अनगिनत समस्याओं से जूझ रहे होते हैं तो प्रकृति की छांव ही हमारे लिए एक समाधान स्वरूप मार्ग प्रशस्त करती है, इसीलिए प्रकृति का हाथ थामना और प्रकृति के साथ जीवन जीना एक दार्शनिक प्रकृति प्रेमी का सर्वोत्तम गुण माना जाता है, क्योंकि हम जीना चाहते हैं और प्रकृति की गोद से इतर हम जी नहीं सकते हैं। हमें जीवन के आवश्यक सत्य को सामने लाने के लिए प्रकृति की हरी भरी गोद चाहिए होती है जो हमें यह सिखाती है कि हमें क्या सीखना चाहिए, ताकि जीवन के अंतिम चरणों में हमें पश्चाताप न करना पड़े। हमारे लिए जीवन जीना बहुत प्रिय है और इसके लिए सच में एक ऐसे वातावरण की आवश्यकता महसूस होती है जो हमें शांत चिन्तन दे सके और यह प्रकृति के लय में रमने से ही प्राप्त होती है। सच में इसी सत्य की खोज को जीवन कहते हैं, परन्तु आज हम जिस सभ्यता और संस्कृति के आगोश में आकर जीवन जी रहे हैं वह आज की इस नई सभ्यता और संस्कृति का बर्ताव प्रकृति प्रेमी न होकर प्रकृति का भीषण दोहन करके अपनी विलासिता के लिए साधन मात्र मानना रह गया है।
हमारे जीवन में खुशी केवल चीजों का संग्रह करने से नहीं, बल्कि आवश्यक चीजों की पहचान में है। हमारी प्राचीन मानव सभ्यता ने हमें जो कुछ भी अपने अन्त:करण की क्रिया के ज्ञान से दिया था वह प्रकृति की गोद में रहकर मर्यादित और संतुलित हो करके दिया था। उनके पैर जमीन पर और नजर आसमान में टिमटिमाते हुए असंख्य तारों के साथ बदलते मौसम के मिजाज पर हुआ करती थी। उन्हें पता होता था कि यह धरती हम से क्या चाहती है और हमें इसके अनुकूल कैसे चलना चाहिए। उन्होंने जीवन के मतलब को भली-भांति समझा और अपनी आने वाली संतति (पीढ़ी) को भी समझाया कि जीवन प्रकृति का अनमोल उपहार है यदि इस अनमोल उपहार को नहीं समझ पाओगे तो काल के अर्थात समय के ग्रास बन जाओगे और तुम्हारी नई पीढ़ी तुम्हें याद करने लायक नहीं रख पाएगी। जीवन का मतलब सही अर्थों में हमारा हर कदम सोच समझ कर उठाना होता है और समय के मूल्य को तौलना जैसा है। अमूमन हमारे जीवन के फैसले हमें जटिलताओं से बांध लेती है और हमारी अनगिनत इच्छाएं और व्याकुलताएं जब हमें हमारे कर्तव्य पथ से भटका देती हैं तो यही प्रकृति की गोद हमें अपनी आबोहवा में शांत होने का एहसास भी दिलाती है और तब हमें यह प्रकृति लम्बी सांस लेने के लिए मजबूर कर देती है और हमें पता भी नहीं चलता है कि हमने लम्बी सांस क्यों ली है। आखिर प्रकृति को समझना ही हमारे जीवन की शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए जो वर्तमान की शहरी शिक्षा प्रणाली में कहीं भी न होना या दिखाई देना एक विनाशकारी संकट का संकेत है, क्योंकि हमारी शहरी नस्ल प्रकृति की जैव विविधता और धरती के पारिस्थितिकीय तंत्र से किसी भी प्रकार से परिचित नहीं है।
अब प्रश्न पैदा यह होता है कि जिस धरती की आबोहवा में हम जीवन जीने के लिए सांस लिए फिर रहे हैं, उस प्रकृति के हरे-भरे आवरण के प्रति हमारी वर्तमान सभ्यता और संस्कृति इतनी असंवेदनशील स्थिति में क्यों नहीं जी पा रही है। क्या हमारी आत्मा से निकलने वाली वह शक्ति मर चुकी है? जो कभी अपने जल, जंगल और अपने पशुधन से असीम प्यार और आत्मीयता के साथ जीवन जिया करती थी। संभवत: हमारी शिक्षा प्रणाली में वह चीज अब नहीं रही, जो होनी चाहिए थी। हम आज निरन्तर शहरों की घुटन भरी बंद गलियों में जिस शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं वह प्रकृति की शिक्षा से बहुत दूर है, इसलिए प्रकृति का संरक्षण उन्हें कभी नहीं मिल सकता है। यदि जीवन जाना चाहते हो तो प्रकृति के साथ जीवन जीना स्वीकार करो अन्यथा पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलने वाला। शौक ये दीदार अगर है तो नजर पैदा कर। इस दुनिया को सच्चे अर्थों में देखना चाहते हों तो देखना सीख लो।
धरती पर जीवन जीवन जीना मुश्किल नहीं बल्कि खेल है
प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी डी थोरो का मानना है कि “इस धरती पर जीवन जीना मुश्किल नहीं बल्कि एक खेल है “अगर सरल और बुद्धिमानी से जीवन जीना सीख जाएं तो इस धरा पर प्राणी जगत के लिए बेहतर होगा। तब वह प्रकृति के साथ रहना सीख जायेगा परन्तु प्राणियों में मनुष्य की मानसिकता सदैव से इस प्रकृति पर विजय पाने की लालसा रही है और इसी लालसा की पराकाष्ठा ने उसे इस धरती के कई जीवों को विलुप्त होने पर विवश किया है और कई जीव विलुप्ति की कगार पर हैं।
मानव जीवन नदी के पानी की तरह
मानव जीवन नदी के पानी की तरह है जो लगातार बहता और बदलता रहता है तथा अपनी अबाद गति से बहता रहता है, जिस तरह से नदी का पानी ऊंचा-नीचा या शांत-अशांत हो सकता है ठीक उसी तरह हमारे जीवन के अनुभव और भावनाएं भी हमें शांत-अशांत कर जीवन में स्थिरता एवम् अस्थिरता पैदा करती रहती हैं। हमने जीवन के जो सपने अपने बचपन से लेकर अब तक देखे हैं यदि उन सपनों की ओर आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते जीवन जिया जाए, जिसकी हम हमेशा कल्पना करते रहते हैं तो जीवन में सफलताएं हमारा कदम चूमेंगी।
जीवन में प्रकृति मानव के लिए खुशी की राह का केंद्र
इस धरती पर ज्यादातर लोग निराशा का जीवन जी रहे होते हैं और वह शांत प्रकृति की गोद में शांति की तलाश में भटकते रहते है, परन्तु प्रकृति की गोद में शांति चाहने के अतिरिक्त हमें निराशा से मुक्ति पाने के लिए अपना रास्ता स्वयं बनाना होता है और सच्चे मन से जीवन जीना सीखना होता है, जैसे एक हल्की सी बारिश घास पर जमी धूल को साफ कर उसे हरा-भरा और तरोताजा कर देती है ठीक इसी तरह मन में बेहतर विचारों के आने से हमारी निराशा या हताशा के कम होने की संभावनाएं उज्जवल होने लगती हैं। हम यदि बदलाव लेकर जीवन जीना सीख जाएं तो जीवन आसान और बेहतर हो जाएगा, जैसे घास औंस के प्रभाव को स्वीकार कर लेती है और धरती की सुंदर छटा सूर्य की प्रथम किरण में जैसे औंस की बूंद को मोतियों का जैसा आकार देती है ठीक उसी प्रकार प्रकृति की सुंदर आबोहवा में हमारे मन के विचार, विकार मुक्त हो जाते हैं। जीवन में प्रकृति हमारे लिए खुशी की राह का केंद्र है। पत्तियों की सरसराहट नदी की अविरल धारा उसकी बनती-बिगड़ती लहरें और सुबह-शाम की थाह देने जैसी शीतल बेला, यह केवल दृश्य मात्र नहीं है, बल्कि हमारे सार्थक जीवन के साथी हैं। प्रकृति का बदलता क्लेवर हमें बदलते मौसम के रूप में सीख देती है कि जीवन जीने का शाश्वत नियम प्रकृति से सीखो पर प्रकृति की संरचना से छेड़छाड़ मत करो।