विपक्षी दलों को साधने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को करना होगा भगीरथ प्रयास
नई दिल्ली, एजेंसी। कांग्रेस के नए अध्यक्ष चुने गए मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने केवल संगठन की कमजोरियों और पार्टी की खिसकी सियासी जमीन वापस हासिल करने की ही नहीं विपक्षी दलों को साथ लाने की भी चुनौती है। क्षेत्रीय दलों के साथ कई राज्यों में राजनीतिक हितों के सीधे टकराव की वजह से विपक्ष को एकजुट करने के लिए खड़गे को भारी मशक्कत करनी पड़ेगी। तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति जैसे क्षेत्रीय दलों को विपक्षी एकता की छतरी में लाने की राह में सियासी हितों के टकराव से लेकर विपक्षी नेतृत्व के चेहरे जैसे कई रोड़े हैं। विपक्षी एकता की सियासी पहल में अब तक खड़गे की कोई सीधी भूमिका नहीं रही थी।
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ही अब तक इस मोर्चे पर कमान संभालती रहीं और पिछले कुछ अर्से के दौरान पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी सक्रिय रहे हैं। सोनिया गांधी बेशक अभी यूपीए गठबंधन की अध्यक्ष बनी रहेंगी, मगर कांग्रेस अध्यक्ष के नाते खड़गे को तमाम विपक्षी दलों के नेताओं से सीधे समीकरण बनाना होगा। राज्यसभा में नेता विपक्ष के नाते अभी तक उनकी विपक्षी नेताओं के साथ राजनीतिक भूमिका संसद में विपक्ष की संयुक्त रणनीति तक ही सीमित रही है। मगर 26 अक्टूबर को औपचारिक रूप से कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभालने जा रहे खड़गे को तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी, बीआरएस अध्यक्ष के़ चंद्रशेखर राव से लेकर समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव जैसे नेताओं के साथ समीकरण बनाना होगा।
कांग्रेस को अपनी राजनीतिक वापसी के लिए विपक्षी गोलबंदी की अपरिहार्य जरूरत है। पार्टी सार्वजनिक रूप से इस हकीकत को स्वीकार कर चुकी है कि भाजपा को 2024 में चुनौती देने के लिए विपक्ष के तमाम दलों को एक मंच पर आना होगा। परंतु, यह भी सच है कि 2019 के आम चुनाव के बाद विपक्षी एकता की हुई तीन-चार गंभीर कोशिशें सिरे नहीं चढ़ पाई हैं। सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव से लेकर हाल में नीतीश कुमार की पहल इसका उदाहरण हैं। इस पृष्ठभूमिॅ में चाहे सैद्घांतिक-वैचारिक सहमति हो जमीन पर ठोस विपक्षी एकता की तस्वीर उभरना कई राज्यों में मुश्किल है।
देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और बसपा के हाशिए पर जाने के बाद समाजवादी पार्टी भाजपा के मुकाबले खड़ी है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से हुए गठबंधन के चलते हुए नुकसान के बाद सपा भी सतर्क है। टीआरएस का नाम बदलकर बीआरएस करने वाले केसीआर के सामने तेलंगाना में कांग्रेस ही मुख्य प्रतिद्वंदी है। बिहार में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा है मगर इसमें राजद और जदयू के सामने उसकी अपनी सीमाएं हैं।
बीजू जनता दल, वाएसआर कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे भाजपा से राजनीतिक दूरी रखने वाले कई अहम क्षेत्रीय दल अभी तक विपक्षी एकता की पहल से दूर ही रहे हैं। ओडिशा, आंध्र प्रदेश, पंजाब और दिल्ली को मिलाकर लोकसभा में सीटों की संख्या 66 है जिन पर इन दलों का प्रभाव है। इन दलों के अब तक की रणनीति को देखते हुए खड़गे के लिए इन्हें विपक्षी छतरी के नीचे लाना टेढ़ी खीर से कम नहीं है।