नई दिल्ली । दिल्ली में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के करीब 11 दिन बाद मुख्यमंत्री के नाम का एलान हो चुका है। दिल्ली ने इस दौरान अब तक आठ मुख्यमंत्री देखे हैं और भाजपा ने रेखा गुप्ता को राजधानी का नेतृत्व करने वाले नौंवा सीएम बनाने का एलान कर दिया। इसी के साथ रेखा गुप्ता दिल्ली की चौथी महिला मुख्यमंत्री होंगी। उनसे पहले सिर्फ सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित और आतिशी ही दिल्ली में महिला सीएम रही थीं।
इस बीच चौंकाने वाली बात यह है कि 1952 से लेकर अब तक दिल्ली में सबसे लंबा 19 साल का कार्यकाल संभालने वाली कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की संख्या सिर्फ तीन रही है, जबकि 1993 में महज पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाली भाजपा ने राजधानी को तीन मुख्यमंत्री दिए हैं।
ऐसे में यह जानना अहम है कि दिल्ली में सरकारों और मुख्यमंत्रियों का इतिहास क्या रहा है? किस पार्टी ने कब से-कब तक राजधानी की सत्ता संभाली? दिल्ली में सबसे लंबा और सबसे छोटा कार्यकाल किस मुख्यमंत्री का रहा है? आइये जानते हैं…
दिल्ली में क्या रहा है सरकारों और मुख्यमंत्रियों का इतिहास?
दिल्ली को विधानसभा मिलने की कहानी अपने आप में काफी रोचक है। इसी शुरुआत होती है 1952 से, जब पार्ट-सी राज्य के रूप में दिल्ली को एक विधानसभा दी गई। दिल्ली राज्य विधानसभा 17 मार्च 1952 को पार्ट-सी राज्य सरकार अधिनियम, 1951 के तहत अस्तित्व में आई। 1952 की विधानसभा में 48 सदस्य थे। मुख्य आयुक्त को उनके कार्यों के निष्पादन में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद का प्रावधान था, जिसके संबंध में राज्य विधानसभा को कानून बनाने की शक्ति दी गई थी।
पहली विधानसभा में कांग्रेस को मिली सत्ता
1951-51 में हुए चुनाव दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 48 में से 36 सीटों पर जीत मिली, जबकि भारतीय जनसंघ को पांच और सोशलिस्ट पार्टी को दो सीटें मिलीं। इस तरह दिल्ली को पहली बार कांग्रेस का सीएम मिला।
1952-1955: पहले मुख्यमंत्री को कहा गया एक्सीडेंटल सीएम
भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की दिल्ली के सीएम पद के लिए पहली पसंद तब देशबंधु गुप्ता रहे थे। हालांकि, एक दुर्घटना में उनकी मौत की खबर के बाद कांग्रेस के सामने असमंजस की स्थिति थी। इस बीच नेहरू ने अपने करीबी नेता चौधरी ब्रह्मप्रकाश को दिल्ली का पहला मुख्यमंत्री बनाया। ऐसे में उन्हें दिल्ली का ‘एक्सीडेंटल सीएम’ भी कहा जाता है।
बताया जाता है कि 34 वर्षीय ब्रह्मप्रकाश किसान नेता थे और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी हुआ करते थे। उन्हें चांदनी चौक से कांग्रेस विधायक डॉ. युद्धवीर सिंह पर तरजीह दी गई थी। 17 मार्च 1952 को ब्रह्मप्रकाश ने सीएम पद की शपथ ली। हालांकि, उनका यह कार्यकाल ज्यादा समय के लिए नहीं चल पाया और 2 साल 332 दिन के बाद 12 फरवरी 1955 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, ब्रह्मप्रकाश का तत्कालीन चीफ कमिश्नर (तब दिल्ली में एलजी के समान पद) पर बैठे एडी पंडित से विवाद काफी बढ़ गया था। ब्रह्मप्रकाश को दिल्ली के हर मामले में उनका दखल देना पसंद नहीं आया और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। ब्रह्मप्रकाश दिल्ली को एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने पश्चिमी यूपी, पंजाब और राजस्थान के कुछ हिस्सों को काटकर दिल्ली में मिलाने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा था। हालांकि, यह प्रस्ताव यूपी के नेताओं और खुद पंडित नेहरू को यह पसंद नहीं आया। प्रकाश ने खुद कहा था कि उन्हें इस प्रस्ताव की कीमत चुकानी पड़ी।
1955-56: जब एक राज्यपाल को बना दिया गया दिल्ली का मुख्यमंत्री
इसके बाद दिल्ली का अगला सीएम गुरमुख निहाल सिंह को बनाया गया। वह 13 फरवरी 1955 को दिल्ली के सीएम बने। हालांकि, उनका कार्यकाल महज 1 साल 263 दिन तक ही चला। राज्य पुनर्गठन आयोग (1955) की सिफारिशों के बाद दिल्ली 1 नवंबर 1956 से भाग-सी राज्य नहीं रही। दिल्ली विधानसभा और मंत्रिपरिषद को समाप्त कर दिया गया और दिल्ली राष्ट्रपति के प्रत्यक्ष प्रशासन के तहत केंद्र शासित प्रदेश बन गया। दिल्ली में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था और उत्तरदायी प्रशासन की मांग उठने लगी। इसके बाद दिल्ली प्रशासन अधिनियम, 1966 के तहत महानगर परिषद बनाई गई। यह एक सदनीय लोकतांत्रिक निकाय था जिसमें 56 निर्वाचित सदस्य और 5 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य होते थे।
1956 से 1993: जब दिल्ली को नहीं मिली कोई सरकार-सीएम
इसके बाद भी विधानसभा की मांग उठती रही। 24 दिसंबर 1987 को भारत सरकार ने सरकारिया समिति (जिसे बाद में बालकृष्णन समिति कहा गया) नियुक्त की। समिति ने 14 दिसंबर 1989 को अपनी रिपोर्ट पेश की और सिफारिश की कि दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना रहना चाहिए, लेकिन आम आदमी से जुड़े मामलों से निपटने के लिए अच्छी शक्तियों के साथ एक विधानसभा दी जानी चाहिए। बालाकृष्णन समिति की सिफारिश के अनुसार, संसद ने संविधान (69वां संशोधन) अधिनियम, 1991 पारित किया, जिसने संविधान में नए अनुच्छेद 239 एए और 239 एबी डाले, जो अन्य बातों के साथ-साथ दिल्ली के लिए एक विधानसभा की व्यवस्था करते हैं। लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के मुद्दों पर विधानसभा को कानून बनाने का अधिकार नहीं था।
1993: दिल्ली को मिली भाजपा की सरकार, पूरे कार्यकाल में तीन सीएम
1991 के दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी अधिनियम के तहत विधानसभा बनी थी। 1992 में परिसीमन के बाद 1993 में दिल्ली में विधानसभा के चुनाव बाद दिल्ली को एक निर्वाचित विधानसभा और मुख्यमंत्री मिला।
नई गठित विधानसभा में भाजपा ने बाजी मारी। भाजपा के मदनलाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की थी। इस चुनाव में भाजपा ने 70 में से 49 सीटें जीती थीं और उसे 42.80 फीसदी वोट मिले थे। कांग्रेस को 34.50 फीसदी और जनता दल को 12.60 फीसदी वोट मिले थे। हालांकि, खुराना 26 फरवरी 1996 तक ही मुख्यमंत्री रह सके।
उनकी जगह साहिब सिंह वर्मा सीएम बने। लेकिन चुनाव से पहले उनकी भी विदाई हो गई। 12 अक्तूबर 1998 को सुषमा स्वराज सीएम बनीं। हालांकि, भाजपा को इसी साल हुए चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
1998 में दिल्ली में फिर लौटी कांग्रेस, 15 साल तक एक ही मुख्यमंत्री
1998 में प्याज के बढ़े हुए दामों ने भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया। इसके बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं शीला दीक्षित। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने बंपर जीत हासिल की। कांग्रेस को 52, भाजपा को 15, जनता दल को एक और निर्दलीयों को दो सीटें मिलीं।
2003 और 2008 में भी कायम रहा करिश्मा
इसके बाद 2003 और 2008 में भी शीला दीक्षित ने कांग्रेस को जीत दिलाई। 2003 में कांग्रेस को 47 और भाजपा को 20 सीटें मिलीं। 2008 में भी भाजपा सत्ता से दूर रही। इस चुनाव में कांग्रेस को 43, भाजपा को 23 और बसपा को दो सीटें मिलीं। कांग्रेस ने इन दोनों चुनावों में अपने विकास कार्यों, मेट्रो प्रोजेक्ट और औद्योगिक क्षेत्र में मजदूर वर्ग को बढ़ावा देने के चलते जबरदस्त जीत हासिल हुई।
2013 में आप का चढ़ाव, 12 साल में सिर्फ दो सीएम बने
2008 की जीत के बाद कांग्रेस की दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार दोनों ही विवादों में घिर गईं। कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोपों पर घिरने के बाद शीला दीक्षित की लोकप्रियता में खासी गिरावट देखी गई। इसमें एक बड़ी भूमिका अन्ना हजारे के जनलोकपाल कानून के लिए किए गए आंदोलन की भी रही। अरविंद केजरीवाल समेत उनकी आम आदमी पार्टी का उदय भी इसी आंदोलन के बाद हुआ था। नतीजतन नई नवेली आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से कई सीटें छीन लीं।
नई नवेली आम आदमी पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया लेकिन बहुमत से काफी दूर रही। 31 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। आप को 28 और कांग्रेस को महज 8 सीटें ही मिलीं। आप ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई। लेकिन ये सरकार सिर्फ 49 दिन तक ही चल सकी।
2015 में केजरीवाल ने रचा इतिहास
2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में आप ने प्रचंड बहुमत हासिल कर नया इतिहास रचा। उसने 70 में से 67 सीटें जीतकर भाजपा-कांग्रेस का सूपड़ा पूरी तरह साफ कर दिया। 2013 में आप को 30 फीसदी वोट मिले थे जो 2015 में बढ़कर 54 फीसदी हो गया। अरविंद केजरीवाल दोबारा सीएम बने।
2020 में भी आप ने ही गाड़ा जीत का झंडा
2020 में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने एक बार फिर 70 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज की। पार्टी के वोट शेयर में 0.73 फीसदी की मामूली गिरावट दर्ज की गई। वहीं, भाजपा के वोट प्रतिशत 6.21 फीसदी का उछाल आया। हालांकि, इसके बावजूद भाजपा को सिर्फ 8 सीटें ही मिलीं। दूसरी तरफ कांग्रेस का वोट प्रतिशत 4.26 फीसदी तक ही रहा। पार्टी ने 2013 और 2015 के बाद एक बार फिर वोट प्रतिशत में गिरावट दर्ज की। 2020 में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 5.44 फीसदी और गिर गया। पार्टी को 2015 की तरह ही 2020 के विधानसभा चुनाव में भी कोई सीट नहीं मिली।