उत्तराखण्ड के शिखर सुर सम्राट हीरा सिंह राणा कुमांउनी गीतों और सौंदर्य की थे आवाज
पार्थसारथि थपलियाल
आ लिली बाकरी.., लस्क कमर.. हाय रे मिजात.., जैसे सुरीले गीतों के गायक “हिर दा” यानी हमारे प्रिय हीरा सिंह राणा हमारे बीच नहीं रहे। उनका आज शनिवार सुबह (13 जून 2020) दिल्ली में निधन हो गया। कभी स्वस्थ कभी अस्वस्थ, वे लंबे समय से अपनी वृद्धावस्था की पीड़ाओं से जीवन को बचाने का प्रयास करते रहे ताकि वे उत्तराखंड की संगीत सेवा करते रहें। मेरा जुड़ाव उनसे 1978 से रहा, जब आकाशवाणी नजीबाबाद में कार्यक्रम अधिकारी नित्यानंद मैठाणी के संयोजन में वे कविता पाठ करने आते थे। उनके साथ दो-तीन बार सजीव कविगोष्ठी प्रसारण का संचालन करने का अवसर भी मुझे मिला। बाद में मेरा अधिकतर सेवाकाल राजस्थान में होने के कारण अधिक संपर्क नहीं रहा। जब मैं दिल्ली स्थानांतरित हो गया (2011), उसके बाद आर के पुरम में आयोजित एक सांस्कृतिक संध्या में (संभवत: 2013 या 14 में) नरेंद्र सिंह नेगी के साथ राणा जी से मिलना हुआ। वही आत्मीयता, वही निश्छलता वही प्रेम, वही सादगी.. क्या बताऊँ क्या न बताऊँ?
राणा जी का जन्म अल्मोड़ा जिले में मानिला-डंडोली में 16 दिसम्बर 1942 को हुआ था। बचपन से ही राणा जी को गीत गाने का बहुत शौक था। खेतों में, जंगलों में, जहां भी मौका मिलता, एक कान पर हाथ रख कर तसल्ली से गाना। इतना सुरीला गाते थे कि खुदेड गीत सुनते महिलाओं के आंखों में आंसू आ जाते। उन्होंने पहाड़ की महिलाओं की कठिनाई को नजदीक से देखा था। 15 वर्ष की आयु में ही उन्होंने मंचों पर गाना शुरू कर दिया था। अपनी पढ़ाई के दौरान ही रामलीला मंडलियों और मंचीय नाटकों से जुड़ जाना, विभिन्न पात्रों का अभिनय करना, होली के दिनों में होली दल बनाकर होली खेलना उनके जीवन की गतिविधियों के अभिन्न अंग बन गए थे। दसवीं पास कर “हिर दा” दिल्ली आ गये कुछ समय दिल्ली में रहे लेकिन खुले आसमान के नीचे खुशी प्रकट करता मोर कभी पिंजड़े में रहना पसंद करेगा। कभी नहीं। वे मानिला चले गए। उत्तराखंडियों की सबसे बड़ी बेबसी यह रही कि अर्थतंत्र मजबूत नहीं रहा। एक बार फिर दिल्ली आ गए। उन्हें चाहनेवाले उस जमाने में भी उतने ही थे, जितने बाद में उनकी बुलंदियों तक रहे। कुछ दिन नौकरी करते बीच में किसी नाटक या सांस्कृतिक कार्यक्रम से जुड़ जाते। वे कलकत्ता भी गए। उन दिनों कलकत्ता की वही स्थिति थी जो अभी मुम्बई की है। उनके जीवन मे रोजगार का स्थायित्व नहीं आ सका। सही बात तो यह है कि वे नौकरी के लिए पैदा भी नही हुए थे। उन्हें तो पहाड़ के संगीत को लोकप्रिय बनाना था।
2016 वर्ष राणा जी का हीरक वर्ष था। उससे कुछ समय पहले फिसलने से राणा जी के एक पांव में फैक्चर हुआ था। मेदांता में इलाज चला। इतनी रकम नहीं थी कि वे दे पाते। वहां भी उनके चाहने वाले मिल गए, कुछ दिल्ली स्थित शुभचिंतकों ने वह राशि अदा की। (नामों को इसलिए नहीं दे रहा हूँ कि कोई छूट जाय तो अन्याय होगा) ये बात राणा जी ने हीरक जयंती के अवसर पर एलटीजी सभागार दिल्ली में आयोजित समारोह में व्यक्त की थी। उनका गला रुंध गया था। उनके चाहने वाले खड़े होकर उन्हें तालियां बजाते हुए सम्मान दे रहे थे। सभागार में तिल रखने की भी जगह नहीं बची थी। सम्मान मालाएं पहनते-पहनते गले में सम्मान का बजन बढ़ गया था। पैर में तकलीफ थी, फिर उन्हें कुर्सी पर बैठकर कुछ गुनगुनाने को कहा गया।
पहाड़ी संगीत की अमृतवर्षा शुरू हुई तो तीन घंटे कब बीते पता ही नहीं चला। आ ली ली बाकरी..आजकल है.. अहा रे जमाना.. लस्क कमर.. त्यर पहाड़ म्यर पहाड़.. हाय रे मिजात.. जैसे अनेक गीत गाये। बाद में गढ़वाली-कुमाऊंनी लोकगीतों की फरमाइश की झड़ी लग गई। हीरा सिंह राणा जी ने कैसेट के दौर में लोकगीतों की कुछ कैसेट्स भी निकाली जैसे-रंगीली बिंदी, रंगदार मुखडी, सौ मनों की चोरा, ढाई बीसी बरस हाई कमाल, आह रे जमाना प्रमुख थी। उन्होंने 300 से अधिक गीत गाये। कविताओं की संख्या अभी ज्ञात करना शेष है। उन्हें इतने सम्मान मिले कि उन्हें नामों को याद करने की बजाय कृतज्ञता प्रकट करना अच्छा लगा।
बड़े शौक से सुन रहा था जमाना
तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते।
उत्तराखण्ड की संस्कृति को ऊंचाईयों तक पहुंचाया
हीरा सिंह राणा के पास अनेक विविधताओं के साथ तीन विशिष्ट गुण थे, वे कवि थे, रंगकर्मी थे और मंचीय लोककलाकार थे। संभवत: सदियों में कोई एक हीरा सिंह राणा पैदा होता है। उनकी गायिकी में पहाड़ जैसी ऊंचाई थी तो घाटी जैसी गहराई। उन्हें कुमाऊँ का नरेंद्र सिंह नेगी माना जाता है। नरेंद्र सिंह नेगी और हीरा सिंह राणा की जुगल जोड़ी ने उत्तराखंड की संस्कृति को जो ऊंचाइयां दी हैं, उत्तराखंडी लोग सदैव उनके आभारी रहेंगे। देश-विदेश में इन दोनों कलाकारों ने जुड़कर उत्तराखंड का मान बढ़ाया। आज जोड़ी टूट गई। टूट गई है माला मोती बखर गए, दो दिन रह कर साथ जाने किधर गए…..।
अकेडमी के पहले उपाध्यक्ष रहे
वर्ष 2019 में दिल्ली सरकार द्वारा गठित “गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषा अकेडमी के हीरा सिंह बिष्ट पहले उपाध्यक्ष थे। सीमित समय में इस अकादमी को सक्रिय करने के लिए उन्होंने अच्छे प्रयास शुरू किए थे लेकिन उनकी दास्तां अधूरी रह गई।
(फोटो संलग्न है)
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