सुरम्य धरा दुमाग पट्टी भौगोलिक रूप से दुर्गम, धरातलीय सुन्दरता के रूप में अद्वितीय

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उत्तराखंड में जब चार धाम यात्रा के लिए तीर्थंकर यात्रा प्रारंभ करते हैं तो हर तीर्थ यात्री में एक प्रश्न पैदा होता है कि किस तीर्थ की यात्रा पहले की जाए, तब यहां एक कहावत प्रचलित रही है कि प्रथम बद्री, पहले केदार की यात्रा की जाय, इस प्रकार जब यात्रियों को पहले केदारनाथ की यात्रा में दुमाग पट्टी के दिव्य दर्शन होते हैं तो हर किसी के मन में स्वर्ग की कल्पना का वह दृश्य उपस्थित हो जाता है जो हर कोई अपने बचपन से देखते आया है फिर वे यहां की अलौकिक सुंदरता को देखने में खो जाते हैं। दुमागी और गंगाड़ी शब्द हमारे उस बचपन से अब तक के सुने गए वे दो स्थानों के नाम हैं जिनकी भौगोलिक पृष्ठभूमि में जलवायु के साथ-साथ प्राकृतिक बनावट के रूप में दोनों को पृथक-पृथक कर देती है। दोनों एक ही केदार घाटी के दो स्थान हैं, परंतु दुमागी और गंगाड़ी बोली में थोड़ी सी ध्वनियों में अंतर पाया जाता है। गंगाड़ी बोली जो भीरी चंद्रपुरी से केदार घाटी की यात्रा के समय का प्रसिद्ध पड़ाव रहा है, यहां से गढ़वाली नागपुरी बोली में ऊपर केदार घाटी की ओर पसरते-पसरते अंतर आने लगता है जबकि चंद्रपुरी से नीचे की ओर रुद्रप्रयाग से ऋषिकेश तक गढ़वाली बोली की ध्वनियों का सफर चौंकाने वाला होता है, जैसे:- चंद्रपुरी से रुद्रप्रयाग तक ठेठ गंगाड़ी, रुद्रप्रयाग से धारी देवी तक पुनाड़ी बोली, धारी देवी से श्रीनगर तक श्रीनगर बोली , श्रीनगर से देवप्रयाग तक श्रीनगर बोली, देवप्रयाग से टिहरी की ओर वाली घाटी में गंगपारी टिहरी बोली तथा गंगा के उस पार अर्थात् पौड़ी की ओर वाली घाटी में गंगा सैलानी बोली का यह रूप चौंका देने वाला होता है। एक आश्चर्य यह भी है कि उत्तराखंड की बड़ी नदियों के आर-पार गढ़वाली हो या कुमांउनी भाषा की ध्वनियों में अंतर आना या पाया जाना हर किसी लिए हमेशा से जिज्ञासा का विषय रहा है, परंतु यह अंतर क्यों पाया जाता है संभवत: इस विषय पर यहां के जनमानस का तर्क हमेशा से अलग-अलग रहा है। अगर भाषाई अनुकरण सिद्धांत की बात करें तो उत्तराखंड की बोली भाषा में अंतर आने का प्रमुख कारण इस धरा पर बाहरी लोगों का अत्यधिक आवागमन जो देश के हर प्रांत से धार्मिक आस्था के रूप में हुआ है या रहा है, इसके कारण ध्वनियों में अंतर आना पाया जाना सार्थक रहा है।
इस आलेख में लेखन के माध्यम से हमारी चर्चा और तर्क का विषय केदार घाटी की सुरम्य धरा दुमाग पट्टी जो भौगोलिक रूप से दुर्गम तो है लेकिन धरातलीय सुन्दरता के रूप में अद्वितीय है, जहां अनेकों धार्मिक आस्था से जुड़े प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हैं, परन्तु इन तीर्थ स्थलों पर मानव जाति का सदियों से अत्यधिक हस्तक्षेप रहा है जिस कारण यहां की भोली-भाली जनता को अत्यधिक आपदाओं का कष्ट भी झेलना पड़ा है। इस दुमाग पट्टी में हमारी धार्मिक जिद हजारों वर्षों से यहां पर वह काम करती आ रही है जो पर्यावरण की दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि केदारनाथ की यह दुमाग पट्टी भीषण भूस्खलन और भूगर्भीय हलचलों में भूकंप की कई बार भीषण तबाही का दृश्य भी झेल चुकी है परंतु हमारी धार्मिक जिद कहें या हमारा धार्मिक भीरूपन जो रूढ़िवादी अवधारणा से इस धरातल की उस देवगुण को नहीं पहचान पाए जो अपनी विशेषताओं में इस धरती को ईश्वर ने पवित्र और श्रेष्ठ बनाया है, क्योंकि इसी पवित्रता से ये स्थान ईश्वरीय ध्यान धारण के प्रमुख केंद्र माने गये थे।
दुमाग का शाब्दिक अर्थ दूर मार्ग या दुर्गम मार्ग हो सकता है, जिन्होंने भी इस शब्द का प्रयोग किया होगा वे इस भू-भाग की अच्छी तरह से जानकारी रखने वाले लोग रहे होंगे। उनका अन्वेषण इस धारा के प्रति पवित्र आस्थावान के रूप में रहा है। दुमागी शब्द अमूमन हम बचपन से अपने कुटुंब परिवार और रिश्तेदारों से सुना करते थे, ये लोग चंद्रपुरी से ऊपर के स्थान वाले लोगों को दुमागी शब्द का प्रयोग करते थे गांवों का नाम कम लेते थे अधिकांश गंगाड़ियों का रिश्ता दुमाग क्षेत्र में ही होता था। यहां के लोग अधिक परिश्रमी और अन्न-धन में गंगाड़ियों से अच्छे होते थे और इसका कारण यहां पर रवि और खरीब की फसलों पर मौसम का दुष्प्रभाव आंशिक पाया जाता है। गर्मियों में गंगाड़ियों को वर्षा के लिए तरसना पड़ता है जबकि दुमागी क्षेत्र वर्षा काल से पूर्व हरियाली से अति सुंदर और नैसर्गिक छटा बिखेरने वाला होता है।
गंगाड़ी और दुमागी क्षेत्र अपनी भौगोलिक बनावट के रूप में मध्य हिमालय का वह सुंदर क्षेत्र है जहां मौसमी मिजाज में अंतर पाया जाना जिज्ञासा का विषय बन जाता है यहां उच्च हिमालय से मध्य हिमालय की ओर पसरते हुए भू-भागों की वनस्पति जिनमें घने देवदार, बांज, बुरांश, मोर, अंयार, उस्त, रिंगाल आदि (स्थानीय भाषा में कहे जाने वाले नाम) इनके मध्य अनेकों जड़ी बूटी वाली वनस्पतियों का दुर्लभ दर्शन होता है और इन्हीं वनस्पतियों के बीच चौकड़िया मारने वाले कस्तूरी हिरन हुआ करते हैं। दुमाग क्षेत्र का अपना सुंदर भौगोलिक आकर इन जीव जंतुओं के लिए सुरक्षित आश्रय देने वाला हमेशा से रहा है।
मुझे दुमागी शब्द पर न जाने क्यों जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि यह शब्द केदार घाटी को दो भागों में विभक्त क्यों कर रहा है और इस शब्द को जानने के लिए मुझे न जाने कितने ही लोगों से पूछताछ करनी पड़ी। फिर मुझे हिमालयन गजेटियर को काफी टटोलना पड़ा इसमें केदार घाटी पर संभवत: बहुत कुछ लिखा गया है। सन् 1884 में हिमालयन गजेटियर के लेखक एड.बिन.टी एडकिन्सन सहाब लिखते हैं कि यहां केदारघाटी में ब्राह्मणों में जो निरोला लोग हैं जो सामाजिक रूप से सरोला ब्राह्मणों की तुलना में कमतर माने जाते हैं और इनका एक अलग वर्ग है, जिसे दुभागी कहते हैं ये न तो सरोला ब्राह्मणों के हाथ का और न गंगाड़ियों ब्राह्मणों के हाथ का (दाल-भात) भोजन करते हैं -भाग 3 पृष्ठ 352। उनके अनुसार हिन्दी शब्द में त्रुटि से दुभागी से दुमागी हो गया होगा। इधर प्रसिद्ध घुम्मकड़ी साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन जी ने भी दुमागी ब्राह्मणों का उल्लेख किया है। राहुल सांकृत्यायन की बात में कुछ सार्थकता इसलिए भी है कि वे दुमाग घाटी में बौद्ध मतावलंबियों से लेकर शैव मतावलंबियों के मध्य कैसे बौद्ध सम्प्रदाय विलुप्ति की कगार तक पहुंचा इस विषय पर उनका शोध यह कहता है कि वैदिक और बौद्ध सम्प्रदाय के मध्य भीषण धार्मिक संघर्ष ने कैसे शैव संप्रदाय और वैष्णव सम्प्रदाय को जन्म दिया है। इस दुर्गम मार्ग या दूर मार्ग वाली घाटी पर अधिकांश ब्राह्मण जातियों का धार्मिक स्थलों पर कब्जा करने का संघर्ष भी रहा है। कितनी आसानी से इन धार्मिक स्थलों को समय के कालखंडों में विभक्ति किया जाता रहा इसे जानना आसान नहीं है। कोई भी शब्द अचानक उत्पन्न नहीं होता है उसकी पृष्ठभूमि किसी न किसी अवधारणा को लेकर समाज के मध्य चर्चित हो जाना पाया गया है। यहां ब्राह्मणों का आपसी विवाद भी कई प्रकार की विसंगतियों को पैदा करता रहा है इसीलिए भारतीय इतिहास हमेशा से अपनी प्रामाणिकता की वास्तविकता तक पहुंचने में उलझता रहा। इसी कारण हम इतिहास की सच्चाई तक पहुंचने में कठिनाईयां महसूस करते आए हैं क्योंकि अमूनन भारतीय इतिहासकार जो देखते हैं वही लिखते हैं सच्चाई के साथ लिखने वाले कम इतिहासकार देखें गये हैं।
दुमाग शब्द अपने आप में सामान्य और आम बोलचाल वाला शब्द माना जाना हमारी भूल होगी यह शब्द कई प्रकार की अवधारणाओं को लेकर भले ही हमारा गंगाड़ी और दुमागी जनमानस के मानस पटल पर आज भी कई प्रकार के अर्थ लिए बैठा हो परन्तु यह जानकारी रखना भी जरूरी है जैसे:- 09 लाख सलाणी और 12 लाख दुमागी केदार घाटी में सीमांत निवास करने वाली सभी जातियों के लोगों के लिए यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। चाहे वह किसी भी जाति का ही क्यों न रहा हो। इससे स्पष्ट हो जाता है कि दोनों ही शब्दों का अर्थ दुर्गम मार्ग या दूर मार्ग का अर्थ विकट मार्ग से है, जहां पहुंचने के लिए उस समय पदयात्रा बड़ी कठिन थी, क्योंकि उस समय आज की तरह आवागमन की सुलभ सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। दुमाग शब्द का उच्चारण अपने आप में यहां के जनमानस में उस पवित्र स्थान का नाम है जहां अनेकों देवी-देवताओं ने भी इस स्थान को प्राप्त करने के लिए भगवान शिव शंकर की शरण में घोर तपस्या के लिए दूर-दूर मार्ग तक पैदल यात्रा की होगी। यद्यपि धार्मिक पक्ष की दृष्टि से किस युग में क्या-क्या धार्मिक परिवर्तन आए यह कहना या समझना वर्तमान जनमानस के मध्य भीषण विवाद का विषय बन सकता है क्योंकि हम सभी में अधिकांश जन समुदाय धार्मिक भीरूपन के वशीभूत धर्म की वास्तविक परिभाषा को समझने में नाकाम रहे हैं। हमने नागवंशी राजा बाणासुर की इकलौती बेटी उषा कुंवरी के नाम से ऊखीमठ को जानने कोशिश आज तक भी नहीं की है जो प्राचीन काल में शिक्षा का प्रमुख केन्द्र रहा है। बाणासुर भगवान शिव शंकर का धर्म पुत्र था परंतु कृष्ण के हाथों मारा गया। यही वह दुमाग है जहां नागराज बाणासुर का बामसू गांव स्थित है। उनका ईष्ट नाग देवता नाग बिच्छू नागजगई स्थान के नाम से उस समय नागलोक की संज्ञा को दर्शाता है और यही वह स्थान है जहां शैव मत और वैष्णव मत में स्थान की छीना-झपटी का संघर्ष हुआ और अंत में दोनों मतावलंबियों में काफी समय बाद सहमत भी बनी होगी जिसका उल्लेख हिमालय गजेटियर ग्रंथ दो भाग दो पृष्ठ 439 पर अंकित है। शिव धर्म पुत्र बाणासुर और कृष्ण का बामसू जो दुमाग पट्टी में है यहीं भीषण युद्ध हुआ था जिसमें बाणासुर श्री कृष्ण के हाथों मारा गया।
दुमाग शब्द अपने आप में एक अकेला अर्थ लिए हुए हैं जो केदार घाटी की तीर्थ यात्रा का दलदल घाटी के रूप में भीषण और कठिन दूर मार्ग या दुर्गम मार्ग है। केदार भूमि का अर्थ दलदल भूमि से है। सम्पूर्ण केदार घाटी जो दुमाग पट्टी के नाम से चर्चित है वर्षा काल में आवागमन की दृष्टि से यह स्थान अति संवेदनशील रहता है। इस घाटी में जहां प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत है वहीं यह क्षेत्र आपदा की दृष्टि से अब तक जन धन हानि के रूप में कहीं भीषण आपदाएं उपस्थित कर चुका है फिर भी इस धरा के प्रति यहां के जनमानस का लगाव कम नहीं हुआ है। केदार घाटी की दुमाग पट्टी की कई विशेषताएं आज भी उन चर्चाओं में शुमार है जैसे:- 09 लाख सलाण और 12 लाख दुमाग अपने अन्न- धन से संपन्न है। यहां के सीमांत क्षेत्रों में बसे गांव जो आपदा की दृष्टि से हमेशा संवेदनशील रहते है वहीं अन्न और धन संपदा से यह क्षेत्र समृद्ध भी है यहां सीमांत गांव के बारे में एक सार्थक कहावत प्रचलित है की गडगू से आगे गांव नहीं, गोनार से आगे नाम नहीं। गडगू और रांसी गोंनार जो हिम क्षेत्र के सीमांत गांव हैं इससे आगे कोई भी गांव नहीं है। इस दुर्गम या दूर मार्ग की दुमाग पट्टी दो भागों में विभक्त है। एक भाग केदारनाथ का तथा दूसरा भाग ऊखीमठ क्षेत्र का तुंगनाथ नामक तीर्थ स्थल है।
दुमाग पट्टी के लोगों का आचार विचार रहन-सहन और बोली भाषा गंगाड़ी क्षेत्र के लोगों से आंशिक रूप में पृथक कर देती है। यह अंतर कई प्रकार के सामाजिक उतार-चढ़ाव के कारण आया है क्योंकि उत्तराखंड की केदार भूमिका यह अंतिम छोर धार्मिक रूप से समय-समय पर देश के विभिन्न राज्यों से आने वाली जातियों के कारण से आया है परंतु अभी भी कुछ आचार विचार बोली भाषा रहन-सहन ऐसे हैं जो अभी यथावत तो हैं जैसे बोली भाषा में कभी-कभी कर्कशता का पाया जाना चकित कर देता है।
यह दुमाग क्षेत्र जो रुद्रप्रयाग जनपद का उत्तरी भाग में स्थित है, इसके दक्षिण भाग में सुंदर बांगर पट्टी है जो यहां की उम्दा प्रकार की अनेक वनस्पतियों से आच्छादित वह भू-भाग है जहां से लस्तर नदी कई प्रकार की जल क्रीड़ाएं करती हुई सूरजप्रयाग, (तिलवाड़ा) के संगम पर आकर मानो अपनी बड़ी बहिन मंदाकिनी का आलिंगन कर उसकी गोद में बैठती हुई अपने महा प्रियतम प्रिय सागर को मिलने के लिए मानों उतावली अथवा बाबली सी हो, ऐसी दिखाई देती है। बांगर पट्टी की यह लस्तर नदी अपने आर -पार कई ऐसे स्थानों को जन्म देती हुई आगे बढ़ती है और अनेक उपजाऊ खेत खलियानों के रूप में प्रसिद्ध है। यह घाटी उम्दा किस्म की वनस्पतियों के लिए जानी जाती है और पर्यटकों के लिए एक सुंदर स्थान के रूप में बहुचर्चित है जो दुमाग पट्टी से मिलकर एक ऊपरी और मैदानी भूभाग को जन्म देकर चरवाहों के लिए उत्तम स्थान के रूप में प्रसिद्ध है।
लेखक मनवर लाल भारती
प्रधानाचार्य इण्टर कालेज पोखरी अजमीर
विकास खण्ड दुगड्डा जनपद पौड़ी गढ़वाल

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