हजारों वृक्षों पर संकट

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उत्तराखंड राज्य के वजूद में आने के बाद यहां विकास तो हुआ लेकिन इस विकास में उत्तराखंड का प्राकृतिक सौंदर्य भी कहीं ना कहीं प्रभावित हुआ है। खास तौर से महानगरों के विकास में जिस प्रकार से पेड़ों की बलि चढ़ाई गई उसने देहरादून सहित कई महानगरों के भौगोलिक संतुलन में भी सामान्य पैदा की है। राजधानी देहरादून की बात करें तो यहां बसने की चाह ने जंगलों से लेकर हरे-भरे दूसरे स्थान पर आरियां चलवाई है। कई ऐसे क्षेत्र हैं जो कभी हरियाली से आच्छादित नजर आते थे वहां अब कंक्रीट के जंगल बन चुके हैं। हाल ही में देहरादून को पर्यावरण की दृष्टि से एक हरियाली भरा इलाका समझे जाने वाली सहस्त्रधारा रोड में हजारों की संख्या में पेड़ों की बलि चढ़ा कर सड़क का चौड़ीकरण किया गया,अब इसके कारण पूरा क्षेत्र वृक्ष विहीन हो चुका है। अब एक बार फिर खलांगा क्षेत्र में हजारों वृक्षों को काटने की तैयारी चल रही है जिसका पर्यावरण प्रेमियों ने विरोध शुरू कर दिया है। वृक्षों को छू कर उन पर नंबरिंग कर दी गई है जिससे स्थानीय लोग भी स्तब्ध हैं। असल में इन वृक्षों को काटने का अभी प्रस्ताव भी सरकार के पास नहीं गया है और इससे पहले ही वृक्षों पर नंबर डालने से कई सवाल पैदा खड़े हो गए हैं। राजधानी निर्माण के बाद देहरादून को पर्यावरण की दृष्टि से सर्वाधिक नुकसान हुआ है खासतौर से मसूरी का निचला क्षेत्र जहां कभी हरे भरे वन नजर आते थे वहां अब बिल्डरों का साम्राज्य नजर आता है। इसी तरह प्रॉपर्टी डीलर एवं बिल्डरों ने राजधानी के दूसरे क्षेत्रों में भी खेतों व जंगलों को काटकर बड़े-बड़े फ्लैट खड़े कर दिए हैं। एक लंबे समय से उत्तराखंड में भू कानून की मांग की जा रही है और यदि समय पर इस महत्वपूर्ण कानून को लागू किया जाता तो देहरादून जैसे दूसरे बड़े नगरों की यह दुर्दशा देखने को नहीं मिलती। कंक्रीट के जंगलों का निर्माण अभी भी निर्बाध गति से चल रहा है और निर्माण के लिए अपनाए जाने वाले नियम कानून को पूरी तरह से ताक पर रखा जाता है। ऐसे ही हालात रहे तो आने वाले दिनों में शायद वन क्षेत्र भी ना बचे। सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह हरियाली आच्छादित क्षेत्र को बिल्डरों के प्रकोप से बचाए।

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