संपादकीय

वृक्ष संरक्षण को जन आंदोलन की जरूरत

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उत्तराखंड में इस बार गर्मी ने जो अपना प्रकोप दिखाया है उसके बाद यह एक बहस शुरू हो चुकी है कि अधिक से अधिक संख्या में वृक्ष लगाएं जाए। कहने और सुनने में यह बेहद आसान और सरल सा उपाय लगता है जो पर्यावरण को बचाने की सबसे बड़ी पहल हो सकती है। पेड़ लगाना एक अलग बात है और बचे हुए पेड़ों को संरक्षित करना अलग। स्थिति उत्तराखंड में बिल्कुल विपरीत चल रही है, जहां विकास के नाम पर बेहद निर्दयता के साथ पेड़ों की बलि चढ़ाई जा रही है। राजधानी देहरादून से लेकर उत्तराखंड के दूसरे बड़े नगरों में सड़कों के चौड़ीकरण का खामियाजा पेड़ों को काटने के तौर पर नजर आ रहा है। स्थिति इतनी बिगड़ गई है की आम व्यक्ति भी सड़कों के चौड़ीकरण एवं विकास के नाम पर किए जा रहे वृक्षों के कटान को लेकर आंदोलन के मूड में नजर आने लगा है। मई और जून के महीने में उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों ने जिस प्रकार की गर्मी और 40 डिग्री पार का टेंपरेचर देखा है उसने यहां के पर्यावरण के भविष्य को लेकर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। भयावह स्थिति के बावजूद भी लगता है कि सरकार अभी यहीं पर रुकने वाली नहीं है और सड़कों के चौड़ीकरण को लेकर अभी ना जाने कितने और पेड़ों की बलि देने के लिए तैयारी की जा रही है। अभी हाल ही में देहरादून के सहस्त्रधारा मार्ग को वृक्ष विहीन कर दिया गया तो वहीं खलांगा के जंगलों को भी काटने की तैयारी नजर आने लगी थी लेकिन व्यापक विरोध के बाद फिलहाल इस कार्य को रोक दिया गया। हालांकि अभी आगे की स्थिति स्पष्ट नहीं है लेकिन खलांगा से उतरकर सड़कों के चौड़ीकरण की योजना अब दूसरी सड़कों के किनारे लगे पेड़ों को निगलने लने की तैयारी में है। चर्चा है कि दीलाराम बाजार से मुख्यमंत्री आवास तक जाने वाली न्यू कैंट रोड को चौड़ा करने का काम किया जाना है जिसके लिए ढाई सौ पेड़ निशाने पर है। इनमें कुछ पेड़ ऐसे भी बताई जा रहे हैं जो 200 वर्ष से भी पुराने हैं। सड़कों के किनारे लगे पेड़ों पर नंबरिंग से स्थानीय लोग चिंतित हैं तो वही कुछ पर्यावरण संगठन अब इस हरकतों का विरोध करने का मन बना चुके हैं। पर्यावरण असंतुलन नजर आने के बाद भी आखिर ना जाने क्यों सरकार हरियाली को नष्ट करने पर तुली हुई है। सड़कों का चौड़ीकरण यदि पेड़ों की बलि ले रहा है तो इसके लिए सरकारी प्रोजेक्ट जिम्मेदार हैं जिन पर लगाम कसनी जरूरी है। प्रदेश के लोग भी अब यह स्वीकार कर चुके हैं कि यदि उत्तराखंड की यही स्थिति रही तो आने वाले दिनों में यहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे हालात देखने को मिलेंगे और यदि अभी से इस अंध कटान के खेल को रोका नहीं गया तो फिर भविष्य के लिए भी कोई अच्छे संकेत मिलने वाले नहीं है। हालात स्वयं यह बयान कर रहे हैं की प्रदेश के लोग वृक्षों को बचाने के लिए सड़कों पर उतरने को तैयार हैं। राज्य के अंदर यह हाल तब देखने को मिल रहा है जब यहां वृक्षों को बचाने के लिए “चिपको” आंदोलन जैसा अभियान चलाया गया था, लेकिन शायद पर्यावरण प्रेमी एवं आंदोलनकारी उन लोगों को यह मालूम नहीं था कि नए राज्य में आने वाली सरकारी योजनाएं पूरे प्रदेश को नंगा करने की होड में जुट जाएंगी। यही कारण है कि वृक्षों के कटान पर अब तक मौन धारण करने वाली आम जनता सोशल मीडिया हो या फिर दूसरे मंच, वृक्ष संरक्षण पर खुलकर बोलने के लिए सिर्फ तैयार ही नहीं बल्कि सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने के लिए भी कमर कसे बैठी है। किसी भी सरकारी योजना का उद्देश्य न केवल जनहित बल्कि पर्यावरण संतुलन के हित में भी होना चाहिए लेकिन यहां जनहित एवं विकास के नाम पर बाकी बातों को भुलाने का कार्य किया जा रहा है। सिर्फ कागजों एवं बयानबाजियों पर पर्यावरण संरक्षण संभव नहीं है बल्कि इसके लिए पहले से ही हमारे पास उपलब्ध हमारी प्राकृतिक धरोहरों को बचाने की जरूरत है। हरे भरे वृक्षों को विकास के नाम पर काटने का यह पागलपन यदि जल्द बंद नहीं हुआ तो फिर हमें एक ऐसे उत्तराखंड के लिए तैयार रहना होगा जो वृक्ष विहीन तो होगा ही साथ ही अपने पुराने प्राकृतिक स्वरूप को भी सिर्फ इतिहास के पन्नों पर ही महिमा मंडन के तौर पर याद रखा जाएगा। समय आ गया है अब जन आंदोलन का जिसमें अपने वर्तमान एवं भविष्य के लिए हर नागरिक को पहल करने की जरूरत है और किसी भी ऐसी सरकारी योजना, जो पर्यावरण को दूषित या उसका विनाश कर रही हो, उस पर खुलकर बोलने एवं विरोध करने की जरूरत अब आवश्यकता बन गई है।

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