संपादकीय

गंभीर प्राकृतिक आपदा के संकेत

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राजस्थान राज्य के चुरू जिले में किस सीजन में पारे ने अर्धशतक का आंकड़ा पार कर लिया है तो वही अभी इस पर से राहत मिलने की कोई असर नहीं है। मरुस्थलीय इलाका होने के कारण राजस्थान में इस प्रकार के तापमान को एक बारगी को स्वीकार किया जा सकता है लेकिन सोचिए जो हालात उत्तराखंड में पैदा हो रहे हैं क्या वह भविष्य की उत्तराखंड को एक उत्कृष्ट भौगोलिक परिस्थितियों वाला प्रदेश बने रहने दे सकते हैं? मैदान से लेकर पहाड़ो तक स्थिति अब नियंत्रण से बाहर हो रही है प्रोग्राम मैदानी क्षेत्र 40 डिग्री के पार से पर पहुंचने को तैयार है तो पहाड़ों की स्थिति भी कोई बहुत अधिक सुखद नहीं है। आज इतना जरूर है कि उत्तराखंड के ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में अभी भी बर्फबारी जैसा वातावरण देखने को मिल रहा है लेकिन कहीं ना कहीं पर्यावरणीय असंतुलन पिछले कुछ वर्षों में इन क्षेत्रों में भी देखने को मिला है। मैदानी क्षेत्र इन दिनों भीषण गर्मी के प्रकोप से जूझ रहे हैं। राजधानी देहरादून में ही तराई के तापमान जैसे हालात बन गए हैं और यहां बिगड़ी भौगोलिक स्थिति के बाद मैं के महीने में ही तापमान 40 तक जा पहुंचा है। इस भीषण गर्मी के बावजूद उत्तराखंड की चार धाम यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं के हौसले को सलाम करना चाहिए। हरिद्वार में प्रवेश करने से लेकर पहाड़ो तक पहुंचने में भीषण गर्मी भी श्रद्धालुओं के हौसले को दिखा नहीं पाई है लेकिन यहां आने वाले श्रद्धालु भी उत्तराखंड के बुरे हालात देखकर अचंभित हैं। पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड का पर्यावरणीय संतुलन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है इसमें न केवल मैदान बल्कि पहाड़ों ने भी अपने मिजाज को बदल लिया है। राज्य गठन के बाद से ही जिस प्रकार से उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों में अनियोजित विकास हुआ है उसमें ना जाने कितने ही वृक्षों को जमींदोज किया गया, और यह क्रम अभी भी जारी है। मैदानी क्षेत्रों में दूर-दूर तक बारिश का कोई अभी नामोनिशान नहीं है तो वही शुष्क मौसम ने अब घरों से बाहर निकलने पर भी बेड़ियां कस दी हैं। बिगड़ते पर्यावरण के बाद फिर वही सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर यह परिस्थितियों उत्पन्न कैसे हुई? स्पष्ट है कि इसका सबसे बड़ा कारण बड़ी संख्या में वृक्षों का कथन है जिसकी रोकथाम के लिए हमारे पूर्व की सरकारें हो या फिर संबंधित विभाग हो उन्होंने कभी वृक्षों की महत्ता को शायद समझा ही नहीं। हम खुद अपनी जिम्मेदारियां का निर्माण करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। खुद आकलन करना चाहिए कि अपने अब तक के जीवन में हमने कितने पेड़ लगाए और अपने सामने कितने पेड़ों को कटते हुए देखा है? करोड़ों में ऐसे लोगों की संख्या होगी जिन्होंने 30 वर्ष तक की उम्र में शायद एक भी वृक्ष लगाने में अपनी भूमिका नहीं निभाई होगी। यहां स्कूलों की भूमिका तय करने के कार्य को एक अनिवार्य मिशन के तौर पर अपनाया जाए तो शायद आने वाले वर्षों में हम अपनी पीढ़ियों को कुछ बेहतर देश दे सकेंगे। सरकारी विद्यालय हो या फिर मोटी-मोटी फीस वसूलने वाले निजी स्कूल या फिर बड़े-बड़े क्षेत्रफल में फैले सरकारी कार्यालय, कहीं भी अब तक कोई बड़ा वृक्षारोपण अभियान राष्ट्रीय स्तर पर देखने को नहीं मिला है। महज प्राकृतिक चक्र के भरोसे वृक्षों के विकास की कल्पना करना एक अतिशयोक्ति ही होगी। उत्तराखंड के पुराने लोग यह कल्पना भी नहीं करते होंगे कि उन्हें इस राज्य में वर्तमान हालात देखने को मिलेंगे। वर्तमान परिस्थितियों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि इसी स्तर पर हम पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करते रहे तो आने वाले दिनों में उत्तराखंड में भी उच्च तापमान जैसे हालात देखने को मिलेंगे। बुनियादी समाधानों की बात करें तो सरकार को आम जन सहयोग से “अनिवार्य वृक्षारोपण मिशन” शुरू करना चाहिए जिसमें प्रत्येक स्कूल एवं सरकारी कार्यालय के लिए एक लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आज के प्रयास भविष्य के संतुलित पर्यावरण निर्माण की शुरुआत बन सकते हैं, बशर्ते इस पर गंभीरता से कार्य किया जाए। अभी तक हम उत्तराखंड में मानसून के दौरान प्राकृतिक आपदा देखते आए हैं लेकिन आने वाले समय में हीट वेव और बढ़ते तापमान का प्रकोप भी प्राकृतिक आपदा के एक नए रूप को पेश करेगा।

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