अटकलों के द्वार पर बिहार की राजनीति
पटना, एजेंसी। बिहार में जदयू अपने ही सहयोगी दल भाजपा से आरपार के मूड में है। इस प्रयास में उसे राज्य की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की भी परवाह नहीं है। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह के भाजपा पर हमलावर रुख का साफ संकेत है कि आगे कुछ उलट-पलट होने जा रहा है। ऐसे में जनमानस में अटकलों का दौर जारी है। हर आदमी एक दूसरे से जानना-समझना चाह रहा है कि आखिर चल क्या रहा है और आगे क्या होने वाला है? जदयू के साथ भाजपा के संबंधों पर बर्फ क्यों जम गई है? जदयू का अगला कदम अब क्या होगा? केंद्र की सरकार में जदयू शामिल क्यों नहीं होना चाह रहा है? नीतीश कुमार ने भाजपा के बड़े नेताओं से दूरी क्यों बना ली है? राजद समेत तमाम विपक्षी दल अचानक अति सक्रिय क्यों हो गए हैं? तेजस्वी यादव का रुख जदयू के प्रति नरम क्यों हो गया है और यक्ष प्रश्न यह कि मंगलवार को बुलाई गई जदयू सांसदों एवं विधायकों की बैठक में कौन सा बड़ा निर्णय लिया जाएगा?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर भी उसी पुस्तक में अंकित हैं, जिनके पन्ने-पन्ने ललन सिंह ने पढ़ना शुरू कर दिया है। सत्ता के खेल में भाजपा और राजद के संख्या बल के आगे जदयू के कमतर रह जाने की कसक डेढ़ वर्ष बाद बाहर आने लगी है। वैसे तो 2020 के विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के साथ ही इसकी झलक उस समय दिख गई थी, जब जदयू की समीक्षा बैठक बुलाकर ललन सिंह ने कहा था कि हम हारे नहीं हैं। हराया गया है। लेकिन, नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बन जाने की खुशी में यह दर्द कहीं न कहीं गुम हो गया था। अब आरसीपी के बहाने खुलकर सामने आने लगा है।
नीतीश कुमार पर आरसीपी की बयानबाजी का जवाब देने के लिए रविवार को बुलाई गई प्रेस कान्फ्रेंस में ललन सिंह ने जदयू को तीसरे नंबर की पार्टी बनने के पीटे षड्यंत्र की बात कही थी। हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया था कि यह षड्यंत्र किसने किया, लेकिन उनका संकेत सीधे तौर पर भाजपा की तरफ था। आरसीपी के रूप में दूसरा चिराग खड़ा करके नीतीश कुमार के कद को छोटा करने के ललन के आरोपों के दायरे में भी भाजपा ही है। ललन सिंह की इस बात के भी गहरे अर्थ हैं कि ऐसी साजिश अब बिहार में नहीं होने देंगे। साफ है कि जदयू नेतृत्व की ओर से किसी भी षड्यंत्र से निपटने का रोडमैप तैयार कर लिया गया है, जिस पर आगे बढ़ने के लिए सही मुहूर्त का इंतजार है। फिर ललन सिंह उस षड्यंत्र का भी पर्दाफाश कर देंगे, जिसके चलते बिहार जदयू छोटे भाई की भूमिका में आ गया है।
पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए से चिराग पासवान की लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को बाहर का रास्ता दिखाते हुए भाजपा-जदयू के बीच सीटों का बंटवारा किया गया था। कुल 243 सीटों में 121 भाजपा को मिली थी और 122 जदयू को। भाजपा ने अपने खाते से मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को 11 सीटें और जदयू ने जीतनराम मांझी के दल पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा को सात सीटें दी थीं। जदयू के हिस्से की 115 में से अधिकतर सीटों पर चिराग ने अपने दल के प्रत्याशी उतार दिए, जबकि भाजपा की सीटों को छोड़ दिया। प्रचार के दौरान भ्रम यह फैलाया कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार को हराने के लिए किया है। चुनाव बाद भाजपा के साथ लोजपा की सरकार बनने वाली है। चिराग के इस स्टैंड से भाजपा के वोट बैंक का लाभ जदयू को नहीं मिल पाया। परिणाम हुआ कि उसकी सीटें 71 से घटकर 43 रह गईं। जदयू इसे षड्यंत्र करार देता है। हालांकि भाजपा पर खुलकर आरोप तो नहीं लगाए हैं, लेकिन संकेत उसी ओर जाता है।