उत्तराखंड

पहले घर-घर जाते थे अब घर से हो रहा प्रचार, लोकसभा चुनाव में बदला ट्रेंड

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बागेश्वर। बदलते समय के साथ चुनाव प्रचार का भी तरीका बदलता जा रहा है। वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव तक कार्यकर्ता गांव-गांव चुनाव प्रचार करने जाते थे। वह हफ्तों बाद ही अपने घर लौटते थे। तब सूचना तंत्र भी इतना मजबूत नहीं था कि वह अपने घर में सूचना दे सकें। ग्राम प्रधान तथा थोकदार कार्यकर्ताओं की रहने व खाने की व्यवस्था करते थे। पार्टी से किसी भी तरह का कोई फंड नहीं होता था। मामूली भोजन खाकर कार्यकर्ता दिन-रात अपने नेता के साथ लगे रहते थे। समय के साथ चुनाव प्रचार का तरीका बदलता जा रहा है। 70 से 90 के दशक तक अधिकतर गांव सड़क सेवा से महरूम थे। साथ ही संचार सुविधा भी शून्य थी। चुनाव तिथि घोषित होने के बाद कार्यकर्ता अपने नेता के साथ गांव-गांव प्रचार में जाते थे। कई हफ्तों के बाद ही वह अपने घरों को लौटते थे। इस तरह के कार्यकर्ता पार्टी के मजबूत सिपाही माने जाते थे।
90 के दशक तक चुनाव के समय कार्यकर्ता पैदल गांव-गांव जाते थे। रात्रि विश्राम कार्यकर्ता गांव में ही करते थे। ग्राम प्रधान की भूमिका इसमें अहम होती थी। -गोविंद भंडारी संयोजक कांडा- कमस्यार पृथक ब्लक संघर्ष समिति।
गांव के बजाए होटलों में रात बिता रहे कार्यकतार्रू चुनाव प्रचार में जाने वाले अधिकतर कार्यकर्ता दिन में सड़क से लगे गांवों में पहुंच रहे हैं और रात होने तक किसी तरह कस्बाई इलाके में पहुंच जाते हैं। यहां होटलों में वह रात बिताते हैं।
अब मोबाइल से हो रहा प्रत्याशियों का प्रचाररू अब ह्वाट्सएप, इंस्टाग्राम, फेसबुक समेत अन्य सोशल मीडिया माध्यमों से चुनाव प्रचार हो रहा है। अब कार्यकर्ता गांव-गांव तक नहीं पहुंच रहे हैं। हर कार्यकर्ता गांव में प्रचार करता है।

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