परवान नहीं चढ पा रही है प्रमुख शहरों में रिंग रोड और बाइपास की योजना
देहरादून। प्रदेश की मुख्य सड़कों से यातायात का घनत्व कम करने को प्रमुख शहरों में रिंग रोड और बाइपास की योजना बनाई गई। मकसद यह कि चारधाम यात्रा व पर्यटन सीजन के दौरान शहरों में जाम की स्थिति न बने और यात्री आसानी से पर्यटन स्थलों को आ-जा सकें। इसके लिए देहरादून, हरिद्वार और हल्द्वानी में रिंग रोड का निर्माण प्रस्तावित किया गया। तीनों पर काम भी हुआ। देहरादून की रिंग रोड के लिए तो पहले लोक निर्माण विभाग और फिर एनएचएआइ को जिम्मा सौंपा गया। कहा गया कि देहरादून के चारों और फोर लेन सड़कें बनाई जाएंगी। यह कवायद भी परवान नहीं चढ़ी तो साल 2018 में फिर से लोनिवि ने 114 किमी लंबी रिंग रोड की डीपीआर तैयार की। अभी तक इसमें कुछ नहीं हो पाया है। हरिद्वार की स्थिति भी इससे जुदा नहीं है। केवल हल्द्वानी की रिंग रोड को प्रथम चरण के कार्य की स्वीकृति मिली है।
गर्मियों के दस्तक देते ही इस साल भी उत्तराखंड के जंगल धू-धू कर जल रहे हैं। इससे बड़ी वन संपदा तबाह होने की आशंका है। दरअसल, उत्तराखंड का तकरीबन 71 फीसद हिस्सा वनाच्छादित है। इस कारण सर्दियां समाप्त होते ही आग का सिलसिला शुरू हो जाता है। विकराल होती आग पर काबू पाने को विभाग के इंतजाम नाकाफी हैं। जो उपकरण हैं, वे छोटी आग को ही रोकने में सक्षम हैं। केवल बरसात से ही इस आग पर काबू पाया जा सकता है। इसे देखते हुए तीन साल पहले, वर्ष 2018 में वन विभाग ने क्लाउड सीडिंग, यानी कृत्रिम वर्षा पर अपनी नजरें दौड़ाई। माना गया कि कृत्रिम वर्षा से जंगलों की आग बुझाने में मदद मिलने के साथ ही सिंचाई में भी यह कारगर साबित होगी। इसके लिए दुबई की एक कंपनी से बात भी की गई, मगर अभी तक इस मसले पर बात आगे नहीं बढ़ पाई है।
प्रदेश में वर्ष 2011 के सैफ विंटर खेलों के लिए बनाया गया अंतरराष्ट्रीय स्तर का आइस रिंक अब महज शोपीस बन कर रह गया है। बीते नौ वर्षों से इसमें एक भी प्रतियोगिता नहीं हो पाई। दरअसल, सैफ खेलों के दौरान 80 करोड़ रुपये की लागत से इस आइस रिंक का निर्माण किया गया था। उस समय यह रिंक दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का एकमात्र आइस स्केटिंग रिंक था। उम्मीद जताई गई कि रिंक से न केवल उत्तराखंड, बल्कि देश-विदेश के खिलाड़ियों को भी एक मंच मिल सकेगा, जहां वे अपने हुनर को तराश सकेंगे। अफसोस यह कि एक प्रतियोगिता के बाद इस रिंक पर कभी बर्फ जमाई ही नहीं जा सकी। तीन साल पहले एक निजी कंपनी को इसका जिम्मा सौंपा गया। कंपनी ने काम तो लिया, लेकिन वह भी इसका संचालन नहीं कर पाई। इसके बाद से खेल विभाग इसके संचालन को लेकर अभी तक नजरें फेरे हुए है।
प्रदेश के निकायों को मजबूत करने के उद्देश्य से बनाए गए 73वें व 74वें संशोधन आज तक पूरी तरह से लागू नहीं हो पाए हैं। इनके लागू होने से पेयजल, सड़क, शिक्षा व ऊर्जा जैसे अहम विषय नगर निकायों के जरिये संचालित होने थे। इससे निगम की आय में खासा इजाफा होता, मगर ऐसा हुआ ही नहीं। इसका कारण जनप्रतिनिधियों के बीच हितों का टकराव होना है। संशोधन के लागू होने से विधायकों की भूमिका सीमित होगी और पार्षदों-सभासदों की भूमिका बढ़ जाएगी। पांच वर्ष पहले जब संशोधनों को लागू करने को केंद्र ने दबाव डाला, तो इनके 18 विषय में से केवल सात विषय निगम को हस्तांतरित किए गए। इनमें मलिन बस्ती सुधार, नगरीय निर्धनता व उन्मूलन, नगरीय सुख सुविधाएं, शवदाह, जन्म-मरण सांख्यिकी व सार्वजनिक सुख सुविधाएं शामिल हैं। सड़क-पुल, नगर वानिकी, पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता, सफाई व कूड़ा करकट प्रबंधन का आंशिक जिम्मा ही निकायों को दिया गया है।