हाईकोर्ट के आदेश के बाद बदला मेले का स्वरूप, 2014 से पूर्व तक होता था पत्थर युद्घ
चम्पावत । देवीधुरा स्थित मां बाराही शक्ति का साक्षात स्वरूप मानी जाती हैं। यहां मां दुर्गा बाराही के रूप में एक गुफा में विराजमान है। यह धाम पाषाण युद्घ (बग्वाल) के लिए प्रसिद्घ है। हालांकि 2014 में हाई कोर्ट के आदेश के बाद से बग्वाल का स्वरूप बदल गया है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा (रक्षाबंधन) को खेली जाने वाली बग्वाल अब फल व फूलों से होती है। हालांकि परंपरा निर्वहन के लिए बीच-बीच में पत्थर भी देंके जाते हैं।वाराह पुराण के अनुसार भगवान विष्णु के वाराह अवतार के समय बाएं अंग में स्थान मिलने से देवी को बाराही नाम से जाना जाता है। प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के दिन होने वाले पाषाण युद्घ जिसे बग्वाल या आषाढ़ी कौतिक भी कहा जाता है, के कारण यह धाम प्रसिद्घ है। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 2014 में यहां पत्थरों से युद्घ पर रोक लगा दी थी। जिसके बाद से फल और फूलों से बग्वाल खेली जा रही है। यह बग्वाल चार खाम और सात थोकों के प्रतिनिधियों के बीच खेली जाती है।
प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में चार खामों के लोगों द्वारा मां बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए नर बलि दी जाती थी। उग्र स्वरूप वाली महाकाली के गणों को प्रसन्न करने के लिए यह बलि दी जाती थी। सभी खामों के लोग हर साल बारी-बारी से अपने परिवार से एक व्यक्ति की बलि देते थे। कहा जाता है कि जब चम्याल खाम की एक वृद्घा की नर बलि देने की बारी आई तो उसके परिवार में एकमात्र पौत्र ही था। असमंजस में पड़ी वृद्घ महिला ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां बाराही की स्तुति की।
मां बाराही ने वृद्घा को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि यदि चारों खामों के लोग मंदिर परिसर में बग्वाल खेलेंगे और उसमें एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहेगा तो वह प्रसन्न हो जाएगी। वृद्घ महिला ने स्वप्न की जानकारी खामों के प्रतिनिधियों को दी। जिसके बाद तय हुआ कि अब नरबलि के बदले प्रतिवर्ष पत्थरों से बग्वाल खेली जाएगी। इसमें चोट लगने से जब एक व्यक्ति के शरीर में मौजूद खून बहने के बाद बग्वाल रोक दी जाएगी। तब से यहां अनवरत बग्वाल खेली जाती रही।
बग्वाल बाराही मंदिर के प्रांगण खोलीखाड़ दुबाचौड़ मैदान में खेली जाती है। चार खामों में से लमगडिया व वालिक खाम के लोग एक तरफ जबकि गहरवाल और चम्याल खाम के लोग दूसरी तरफ रहते हैं। रक्षाबंधन के दिन सुबह योद्घा सबसे पहले सज-धजकर मंदिर परिसर में आते हैं। मां बाराही के जयकारे के साथ मंदिर की परिक्रमा करते हैं। उनके हाथों में युद्घ में बचाव वाली फर्रे यानी ढाल भी रहती है। मंदिर के पुजारी का आदेश मिलते ही दोनों ओर से फल और फूल एक दूसरे के उपर देंकने का क्रम शुरू हो जाता है। जब तक पुजारी आदेश नहीं देते तब तक यह युद्घ जारी रहता है। इस खेल में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है, लेकिन बग्वाल पूरी शिद्दत के साथ खेली जाती है। इस खेल में आज तक कोई गंभीर रूप से घायल भी नहीं हुआ। युद्घ खत्म होते ही सभी आपस में गले मिलकर जयकारे लगाते हैं।