सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ठोस सुबूत के अभाव में सह-आरोपित की गैर-न्यायिक स्वीकारोक्ति का महत्व नहीं, जानिए क्या है पूरा मामला
नई दिल्ली,एजेंसी। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि आरोपित के खिलाफ किसी ठोस सुबूत के बिना सह-आरोपित द्वारा कथित रूप से की गई गैर-न्यायिक स्वीकारोक्ति का महत्व नहीं है और ऐसी स्वीकारोक्ति के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बेला एम़ त्रिवेदी की पीठ ने कहा कि गैर-न्यायिक स्वीकारोक्ति ऐसी स्थिति में बेहद विश्वसनीय होगी जब उसकी पुष्टि करने वाली पुख्ता परिस्थितियां हों और अभियोजन के अन्य साक्ष्य भी उसकी पुष्टि करते हों। पीठ ने कहा कि आरोपित अदालत के समक्ष निश्चित रूप से दोषी होना चाहिए, न कि दोषी होने की संभावना होनी चाहिए और दोषसिद्घि निश्चित निष्कर्षो पर आधारित होनी चाहिए, न कि अस्पष्ट अनुमान पर आधारित। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने हत्या आरोपित को बरी कर उसे रिहा करने का आदेश दिया। उसने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी जिसमें निचली अदालत द्वारा सुनाई गई उम्रकैद की सजा को बरकरार रखा गया था।
अभियोजन के अनुसार इस मामले में एक महिला और पुरुष के बीच प्रेम प्रसंग था, लेकिन महिला के पिता और उसके चाचा इसके खिलाफ थे। दिसंबर, 1994 में प्रेमी युगल लापता हो गया था और कुछ दिनों बाद दोनों के शव पेड़ से लटके हुए मिले थे। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक उन्हें मरे हुए आठ-दस दिन हो गए थे और मौत की प्रति आत्महत्या वाली थी। अभियोजन के मुताबिक, दो दिसंबर, 1994 को आरोपित चंद्रपाल (शीर्ष अदालत में अपीलकर्ता) मृत मिले पुरुष को अपने घर ले गया था जहां एक अन्य सह-आरोपित ने उसकी हत्या कर दी थी। बाद में दो अन्य सह-आरोपितों ने महिला की हत्या कर दी थी। निचली अदालत ने चारों को हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई थी, लेकिन हाई कोर्ट ने बाकी तीन को हत्या के आरोप से बरी कर दिया था।