संपादकीय

विकास की आड़ में पर्यावरण असंतुलन

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व्यवसायिकता की दौड़ में आज इंसान ने धरती की भौगोलिक परिस्थितियों को इस प्रकार से बिगाड़ कर रख दिया है कि आज खुद ही वह इसका शिकार बन गया है। मैदान से लेकर पहाड़ तक प्रकृति का जिस प्रकार से दोहन किया गया उसकी विभीषिका आज देखने को मिल रही है। मैदानी और तराई क्षेत्र की तो बात ही क्या करनी, पहाड़ों की दशा भी बद से बदतर हो चुकी है। उत्तराखंड भी प्रकृति के इस असंतुलन से बच नहीं पाया है और यहां जिस प्रकार से भौगोलिक परिवर्तन देखने को मिला है वह भविष्य के लिए निश्चित तौर पर खतरे के संकेत हैं। आज से चद वर्ष पहले उत्तराखंड की यह स्थिति नहीं थी और यहां ग्रीष्म काल में भी बादल बरस जाते थे। राज्य बनने के बाद अंधे विकास की दौड़ में शामिल देहरादून नगर को तो मानो किसी की नजर ही लग गई है और अब यह एक घाटी ना होकर एक ऐसी तपती हुई भट्टी में तब्दील हो गई है जहां रहना अब दुभर महसूस होने लगा है। इस शहर की इससे बड़ी त्रासदी भला और क्या होगी कि दिन का अधिकतम तापमान 45 डिग्री तक जा पहुंचा है और राजधानी कि वह सड़कें जो वाहनों के जाम से जूझती नजर आती है आज वहां सड़कों पर वीराना पड़ा हुआ है। यही स्थिति राज्य के दूसरे ऐसे शहरों में भी हैं जहां विकास के नाम पर अनियोजित योजनाओं एवं निर्माण को सरकार आंखें बंद कर मंजूरी देती रही। पेड़ों के व्यापक कटान का ही यह परिणाम है कि आज उत्तराखंड अपनी पुरानी पहचान खोता जा रहा है। वर्ष 2000 में जब अलग राज्य की स्थापना हुई तो विकास की अंधी दौड़ यहां की भौगोलिक परिस्थितियों को भी निगलती चली गई। अंधाधुंध निर्माण बड़ी संख्या में वृक्षों का कटान, विकास के नाम पर दशकों से लगे हरे पेड़ों की कुर्बानी, निर्माण के दौरान काट दिए जाने वाले वृक्ष आज हमें कहीं ना कहीं प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने का दंड दे रहे हैं। सबसे बड़ी चिंता का विषय तो यह है कि प्रकृति के संरक्षण में अब तक की राज्य सरकारें भी संवेदनशील नजर नहीं आई है और विकास के नाम पर तमाम विरोध के बावजूद भी जंगलों एवम सड़क किनारे लगे पेड़ों को काट दिया गया। व्यापक तौर पर पेड़ों को जमींदोज कर आखिर हम एक संतुलित स्वस्थ पर्यावरण की कल्पना कैसे कर सकते हैं। पर्यावरण संरक्षण का ज्ञान देना बेहद आसान है लेकिन खुद आकलन करना चाहिए कि क्या हम वाकई पर्यावरण संरक्षण और संतुलन के लिए अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं? राज्य सरकार को भी अब कोई ऐसी एक नीति और अभियान अपनाना चाहिए जिसमें किसी भी प्रकार के निर्माण के लिए वृक्षों को लगाने की कुछ सीमित संख्या निर्धारित होनी चाहिए। निर्माण के लिए हम पेड़ काट डाले और उसके स्थान पर उसकी भरपाई भी ना करें यह बिल्कुल न्याय संगत नहीं है।

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