हरि और हर का हुआ मिलन, सभा मंडप पहुंचकर पहली सवारी का समापन
उज्जैन, एजेंसी। नगर भ्रमण करने के बाद बाबा महाकाल पुन: मनमहेश स्वरूप में महाकाल मंदिर पहुंचे। यहां सभा मंडप में पंडितों द्वारा भगवान मनमहेश को स्थापित किए जाने के बाद परंपरागत पूजन किया गया। महाकालेश्वर मंदिर के पुजारी पंडित महेश गुरु ने बताया कि सभा मंडप में हुए भगवान मनमहेश के पूजन के बाद मंदिर में बाबा महाकाल की सांध्य आरती शुरू हुई।
नगर भ्रमण के दौरान बाबा महाकाल की सवारी जब गोपाल मंदिर पहुंची तो यहां गोपाल मंदिर के पुजारी बाबा महाकाल का पूजन अर्चन करने के लिए मुख्य मार्ग पर आए। जहां उन्होंने पालकी में भगवान मनमहेश का पूजन अर्चन कर आरती की। इस दौरान हरि और हर का मिलन भी हुआ। याद रहे कि गोपाल मंदिर से बाबा महाकाल की सवारी पटनी बाजार, गुदरी चौराहा 24 खंबा मार्ग से होते हुए पुन: मंदिर पहुंचेगी।
भगवान भोलेनाथ के भक्त भी भोले ही होते हैं, उनका यही भोलापन बाबा महाकाल की सवारी में नजर आता है, क्योंकि इस सवारी में कुछ श्रद्धालु देवता का रूप धारण कर निकलते हैं तो कुछ भूत,पलीत और दानव बनकर। बाबा महाकाल की यह सवारी निराली ही होती है क्योंकि सवारी में कोई झांझ बजाता है तो कोई डमरू। हर कोई सवारी के दौरान अपनी ही मस्ती में मस्त रहता है और बाबा महाकाल का जय घोष करता दिखाई देता है। बाबा महाकाल की सवारी को देखने के लिए श्रद्धालु मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देशभर से उज्जैन पहुंचते हैं और बाबा कि सवारी का दर्शन लाभ लेकर अपने आपको धन्य महसूस करते हैं।
सवारी मार्ग पर बाबा महाकाल के आगमन के पहले कलाकार आकर्षक रंगोली बना रहे थे जो कि इतने कम समय में बनाई जा रही थी जिसे देखकर यह कहा जाए कि पलक झपकते ही कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। सवारी मार्ग पर बनाई जा रही इस रंगोली से चौराहे भी आकर्षक नजर आ रहे थे।
महाकाल की सवारी का स्वरूप हर दशक में बदलता रहा है। सवारी निकलने का सबसे पुराना प्रमाण 2100 साल पुराना शिलालेख है, 300 साल पहले सवारी को शाही स्वरूप मिला।
श्रावण में निकलने वाली महाकाल सवारी का अब तक का सबसे प्राचीन उल्लेख 2100 साल पुराने शिलालेख में होने का दावा है। पुराविद् डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित के अनुसार यह शिलालेख गढ़कालिका क्षेत्र से 25 साल पहले मिला था। लिपि शास्त्री डॉ.जगन्नाथ दुबे ने इस पर विक्रम, रुद्र, मोह लिखा बताया। इस पर नंदी पर शिव जाते दिख रहे हैं।
300 साल पहले सिंधिया वंशजों ने सवारी को शाही स्वरूप दिया। जब मंदिर का नव निर्माण कराया तभी से सवारी का नया स्वरूप शुरू हुआ। यह सवारी शाही खर्च और इंतजाम से निकलती थी, इसलिए भगवान को भी राजसी वैभव से भ्रमण की शुरुआत हुई। सवारी मराठा कैलेंडर के अनुसार अमावस्या से अमावस्या तक निकलती थी।