कण्वभूमि में साहित्य की अविरल गंगा बहाने में प्रमुख है रसधारा साहित्यकार चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’ की साधना
सुभाष चन्द्र नौटियाल
महर्षि कण्व की तपोभूमि कण्वाश्रम में कभी वेद की ऋचाऐं गुंजायमान हुआ करती थी। यह विश्व का वह क्षेत्र है जहां विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय स्थापित था। विदेशी आक्रमणकारियों ने न सिर्फ इस क्षेत्र में स्थापित विश्वविद्यालय को नष्ट किया बल्कि यहां के ज्ञान के भंडार का साहित्य या तो अपने साथ ले गये या नष्ट कर दिया। मध्यकालीन युग आते-आते यहां का साहित्य लगभग विलुप्त हो चुका था। 17वीं सदी के आसपास गढ़वाल का यह द्वार व्यावसायिक गतिविधियों का केन्द्र बना तथा यहां पर साहित्य सृजन में सीमित संसाधनों की उपलब्धता रही है। इसके बाद यहां पर साहित्य सृजन करना टेढ़ी खीर रहा। परन्तु बीसवीं सदी में साहित्य के लिए ऊसर हो चुकी इस भूमि को पुन: साहित्य की रसधारा बहाने के लिए अनेक साहित्यकारों ने इस भूमि को उर्बरा की साहित्य भूमि में बदलने के लिए निरंतर प्रयास किया है। साहित्य साधना में लीन ऐसे कर्मठ, जुझारू, साहित्यकारों ने न सिर्फ कण्वभूमि के साहित्य को पुन: संग्रहित करने का कार्य किया है बल्कि उसे नया आयाम देने के लिए दिन रात मेहनत की है। बारहवीं सदी में विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय कण्वाश्रम के ध्वस्त होने के कारण ज्ञान विज्ञान और साहित्य से उपजा शून्यता ने इस क्षेत्र में जो वीरानी ला दी थी उस शून्यता को भरने के लिए तथा वीरानियों को समाप्त करने के लिए अनेक साहित्य सृजनकर्ताओं ने समय-समय पर इस भूमि को फिर से पुष्पित और पल्लवित करने के लिए दिन-रात परिश्रम किया है। ऐसे ही साहित्यकारों में एक साहित्यकार हैं- चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’।
अपने नाम के अनुरूप चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’ ने न सिर्फ साहित्य का संरक्षण किया है बल्कि साहित्य सृजन के लिए निरंतर प्रयास किया है। चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’ ने अपनी सृजनात्मक शक्तियों को जागृत करते हुए न सिर्फ व्यावसायिक क्षेत्र के साहित्य सन्नाटे को साहित्य की रसधारा में बदलने का प्रयास किया है बल्कि साहित्य सृजन में लगे साहित्यकारों को संगठित करने का निरन्तर प्रयास भी किया है। उनके सांगठनिक स्वरूप का समर्पित व्यक्तित्व, अनेक साहित्यिक, सामाजिक तथा धार्मिक कार्यों में दिन-रात कार्यरत रहते हुए अपने चिर लक्ष्य की ओर आज भी निरन्तर अग्रसर हैं। 90 वर्ष की आयु पूर्ण होने के बाद भी आप निरन्तर साहित्य चिंतन में रत हैं। ‘कमलेश’ व्यक्ति न होकर एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व हैं जो स्वयं एक ऐसे संगठन हैं जो कि अनेक संगठनों को बल प्रदान कर मूत्र्त स्वरूप देने में समर्थ हैं। जैसा कि विदित ही है कि वैदिक काल से ही यह क्षेत्र बुद्घिजीवियों की जन्मस्थली रही है। वेद ऋचाओं की जन्मस्थली कण्वाश्रम सम्पूर्ण विश्व के लिए ज्ञानस्रोत का केन्द्र रहा है। महाकवि कालीदास का ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ की पृष्ठभूमि भी यहीं से प्रारम्भ होती है। प्रतापी महाराज भरत की जन्मस्थली तथा शकुन्तला की क्रीड़ास्थली भी यही भूमि रही है। इस ऐतिहासिक एवं पौराणिक भूमि के काण्डई नामक ग्राम में 10 दिसम्बर 1930 को आपका जन्म हुआ। आपके पिता का नाम वैद्य कलीराम शर्मा (बेबनी) तथा माता का नाम अषाढ़ी देवी है। आपके पिता प्रकाण्ड पण्डित तथा वैद्य थे। पिता के वैद्य और पण्डित होने के कारण घर संस्कारवान था जिसका असर बाल चक्रधर पर भी पड़ा। बालक चक्रधर विद्यानुरागी तथा माता-पिता का परम् भक्त हुए।
ग्राम बल्ली में हुई प्रारम्भिक शिक्षा
चक्रधर की प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम बल्ली में हुई तथा 5 से 7वीं तक शिक्षा वर्नाक्यूलर पौखाल में सम्पन्न हुई। 1946 में प्रथम गोरखा मिलिट्री स्कूल तथा डीएवी कालेज देहरादून से 1949 में हाईस्कूल में चार विषयों में विशेष योग्यता हासिल करने के पश्चात भी अंग्रेजी की पूरक परीक्षा का दण्ड आपको भोगना पड़ा। डीएवी कॉलेज देहरादून में आपने हिन्दी साहित्य समिति की स्थापना की और सचिव रहे। 1949 में महात्मा खुशीराम सार्वजनिक पुस्तकालय एवं वाचनालय में सह पुस्तकालयाध्यक्ष नियुक्त हुए तथा 1951 तक इस पद पर अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन किया। 1949 में आपका विवाह चन्द्रमती देवी से हुआ। 1951 में मसूरी में 6 माह के लिए जनगणना कार्यालय में कम्पाइलर चैकर के रूप में नियुक्त हुए। इसके पश्चात आपने सन् 1951 में पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी रत्न और भूषण की परीक्षायें दी। 1952 में आप गांव वापस आ गये तथा 1952 से 1955 तक जूनियर हाईस्कूल बल्ली में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद पर कार्य किया। इसी बीच आपने उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद से 1952 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की।
1949 में मिली कमलेश की उपाधि
1949 में डीएवी इण्टर कालेज देहरादून में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था जिस कवि सम्मेलन में राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पंत जैसे महान कवि शामिल हुए। इस कवि सम्मेलन में चक्रधर शर्मा को उनके सुन्दर काव्य पाठ से प्रभावित होकर सुमित्रानन्दन पंत तथा मैथलीशरण गुप्त द्वारा कमलेश के नाम से उपाधि प्रदान की गयी।
1993 में गौरी पुस्तकालय से हुए सेवानिवृत्त
सन् 1955 में प्राध्यापक पद से मुक्त होने के पश्चात नगर पालिका कोटद्वार की श्री गौरी सार्वजनिक पुस्तकालय में पुस्तकालयाध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया। पुस्तकालय को सुचारू रूप से संचालन के लिए 9 माह तक आप पुस्तकालय में नि:शुल्क कार्य करते रहे। अपने कर्मठ व्यक्तित्व तथा विशेष लगाव के कारण नगर पालिका के पदाधिकारियों ने आपके कुशल नेतृत्व में इस पुस्तकालय को समृद्घ किया। पुस्तकालय को संरक्षण एवं संवद्र्घन करने के साथ-साथ आपने अपनी शैक्षिक योग्यता को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। उत्तर प्रदेश पुस्तकालय संघ कानपुर से प्रथम श्रेणी में सर्टिफिकेट ऑफ लाइब्रेरी साइन्स की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात तकनीकी रूप से आप एक योग्य और कर्मठ पुस्तकालयाध्यक्ष सिद्घ हुए। विद्यानुरागी होने के कारण आपने अपनी पूर्व शिक्षा पर सन्तोष न करते हुए शिक्षा का विस्तार किया। आयुर्वेद मध्यमा, आयुर्वेद रत्न, साहित्य रत्न आदि की परीक्षायें उत्तीर्ण की। पुस्तकालयाध्यक्ष का पद अत्यन्त कर्मठता और लगनशीलता से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के पश्चात 1993 में सेवा निवृत हुए। सेवा निवृति के पश्चात आपकी कार्य कुशलता पर मुग्ध होकर आर्य समाज कोटद्वार ने पुस्तकालय स्थापना के लिए आपका सहयोग लिया।
सांस्कृतिक मंडल की स्थापना की
घाड़ क्षेत्र को सांस्कृतिक रूप से समृद्घ बनाने के लिए आपने स्व0 मानसिंह रावत के साथ मिलकर सांस्कृतिक मण्डल की स्थापना की। इस प्रयास में विनोबा भावे जी का आशीर्वाद भी मिला। घाड़ क्षेत्र के विकास के लिए चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’ आज भी निरन्तर चिन्तित रहते हैं।
भरत नगर का सपना अधूरा
भरत नगर को बसाने के लिए 1953 स्व0 वीरचन्द्र सिंह ‘गढ़वाली’ द्वारा भरत नगर अवधारणा प्रस्तुत की गयी। इस प्रयोजन हेतु 1984 में भरत नगर निर्माण समिति का गठन स्व0 वीरचन्द्र सिंह ‘गढ़वाली’ की अगुवाई में किया गया। गढ़वाली की योजना के अनुसार जिस प्रकार देहरादून के निकट पर्वतीय क्षेत्र में पहाड़ों की रानी मसूरी, ऋषिकेश के निकट नरेन्द्र नगर से लगी पर्वत श्रृंखला नरेन्द्र नगर तथा हल्द्वानी के निकट नैनीताल बसा है। इसी की तर्ज पर कोटद्वार से लगी पर्वत श्रृंखला घाड़ क्षेत्र में बल्ली, उतिर्छा, रामड़ी, चरेख, चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम से भरत नगर की स्थापना की जाए।
सम्राट भरत जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। उस भरत के नाम पर एक ऐसा नगर स्थापित हो जो कि सैलानियों के साथ-साथ उन लोगों के लिए भी लाभदायक होगा जो पर्वतीय क्षेत्र के नगरों में बसना चाहते हैं। इस नगर का निर्माण समुद्र तट से 4600 फीट से लेकर 5000 फीट तक की ऊंचाई पर होगा। परिकल्पना के अनुसार यह नगर बड़ा भव्य और रमणीक होगा। इस नगर में एक छोर से मालिनी तट पर स्थित चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्म स्थली कण्वाश्रम के दर्शन होंगे तो दूसरे छोर से नगाधिराज हिमालय की वे कई पर्वत श्रृंखलाऐ दृष्टिगोचर होगी जिन्हें पर्वतारोही तथा यात्री केदार कांठा (22770 फीट), चौखम्बा (23420 फीट), कामेट पर्वत (25447 फीट) तथा उत्तर में कैलाश पर्वत के नाम से जानते हैं। इसके पूर्वी भाग में खोह नदी का विहंगम दृश्य दक्षिणी भाग से मुरादाबाद, नजीबाबाद, हरिद्वार आदि नगर स्पष्ट दिखायी देते हैं। यहीं से खोह नदी को रामगंगा और मालिनी को गंगा में समाहित होते देखा जा सकता है। नगर निर्माण की इस परिकल्पना में वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली, चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’, पीताम्बादत्त देवरानी और भोलादत्त बेबनी शामिल थे। वर्तमान में चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’ ही एकमात्र जीवित हस्ताक्षर हैं। इस परिकल्पना का पूरा लेखा-जोखा वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली द्वारा रचित पुस्तिका ‘भरत नगर निर्माण पुस्तिका’ में अंकित है। इस पुस्तिका का संपादन चक्रधर शर्मा ‘कमलेश’, पीताम्बरदत्त देवरानी, कुँवर सिंह नेगी ‘कर्मठ’ ने संयुक्त रूप से किया। उनके भरत नगर का सपना आज भी अधूरा है।
साहित्यांचल के 9 साल तक अध्यक्ष, 8 साल तक महासचिव रहे
नगर पालिका पुस्तकालयाध्यक्ष तथा बल्ली जूनियर हाईस्कूल में प्राध्यापक के रूप में आपकी आपकी अभिरूचि अध्ययन तथा अध्यापन की ओर बढ़ी जिसके कारण आपका चिंतन, मनन बढ़ना स्वाभाविक था। इस चिंतन मनन को आपने अपनी लेखनी के माध्यम से प्रस्तुत किया। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख प्रकाशित हुए जिसमें मुख्य घाड़ क्षेत्र की विकास योजनायें, उपेक्षित घाड़ क्षेत्र, कस्तूरी मृग, फूलों से गढ़वाल क्षेत्र का विकास आदि प्रमुख हैं। आपके दो कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें एक पूलि गढवलि (कविता-संग्रह) तथा हिन्दी में भूति और विभूति हिन्दी (कविता संग्रह) प्रकाशित हुए। इसके अलावा साहित्य को गति प्रदान करने के लिए साहित्य क्षेत्र से जुड़ी हुई हस्तियों से आपका निरंतर जुड़ाव रहा है। 12 मई 1973 को जब डॉ0 रामप्रसाद ध्यानी (डी0लिट0) की अध्यक्षता में साहित्यांचल का गठन हुआ तो कमलेश इसके सदस्य रहे। इसके संस्थापक सदस्यों में रमेश कुमार मिश्र ‘सिद्घेश’, नरेन्द्र उनियाल, अशोक कुमार ‘निर्दोष’, राम प्रसाद मैठाणी, मेहरबान सिंह कंडारी (एम0एल0ए0, आई0ए0एस0), डॉ0 हरि प्रसाद थपलियाल आदि थे। आप साहित्यांचल संस्था के 8 साल तक महासचिव तथा 9 साल तक अध्यक्ष पद पर रहे। वर्तमान में आप साहित्यांचल संस्था के संरक्षक हैं।
नाट्य संस्था शैल नट की स्थापना की
साहित्यांचल संस्था के अतिरिक्त आप गढ़वाली भाषा परिषद के संस्थापक सदस्य रहे। गढ़वाली भाषा परिषद का उद्देश्य गढ़वाली भाषा को साहित्यिक स्वरूप प्रदान करना था। जिसका विकास देहरादून में भी एक शाखा के रूप में हुआ और वहां इस संस्था ने कुछ समय तक अच्छा कार्य भी किया। बैरिस्टर मुकंदीलाल स्मृति समिति के सक्रिय सदस्य बनकर ‘कमलेश’ ने इस समिति की अनेक बैठकों में अपना सक्रिय योगदान दिया। जिन बैठकों के फलस्वरूप गढ़ कलाविद् मुकन्दी लाल बैरिस्टर स्मृति ग्रन्थ का निर्माण हुआ। सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ाव होने के कारण आपने कोटद्वार में 1984 में नाट्य संस्था शैल नट की स्थापना की। स्थापना के समय इस संस्था के आप मुख्य संयोजक रहे। इस संस्था ने अनेक स्थानों पर मंच के माध्यम से नाट्य विद्या का मंचन किया। आपने धाद् पत्रिका का संचालन भी किया। साहित्यकार तथा विद्या प्रेमी होने के कारण आप श्रीमती रामेश्वरी देवी बडोला स्मृति शिक्षा ट्रस्ट के मंत्री भी रहे। जिसका उद्देश्य संस्कृत पढ़ने वाले मेधावी छात्रों को छात्रवृति प्रदान करना है।
कण्वाश्रम विकास के लिए प्रत्यनशील
कण्वाश्रम राष्ट्र का गौरव है, इसका विकास करना हम सबका कर्तव्य है। इसके विकास के लिए कृत संकल्प आप स्वयं तथा जगमोहन सिंह नेगी, ललिता प्रसाद नैथानी आदि लोगों ने उत्तर प्रदेश सरकार के मेधावी तथा साहित्य सेवी मुख्यमंत्री डॉ0 संपूर्णानन्द से इसके विकास और संवद्र्घन के लिए अनुरोध किया। जिसका क्रियान्वयन डॉ0 संपूर्णानन्द ने स्वयं कण्वाश्रम आकर प्रारम्भ किया। वर्तमान में आप कण्वाश्रम विकास के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं। आपकी कर्मठता एवं सेवादारी को देखते हुए समय-समय पर आपको सम्मानित किया गया। आपके 91वें जन्मदिवस की बधाई देते हुए हम आपके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की मंगल कामना करते हैं।