ढोल के बिना पहाड़ का लोक और सामाजिक जीवन अधूरा
देहरादून। उत्तराखंड हिमालय के लोक वाद्य यंत्र ढोल को लेकर दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के तत्वावधान में श्ढोल, कलावंत और संस्तिश् पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें संस्ति कर्मी ड़ नंद किशोर हटवाल ढोल के महत्व को रेखांकित करते हुए ढोल व ढोल वादकों के संवर्द्धन-संरक्षण का आह्वान किया। लैंसडाउन चौक स्थित दून लाइब्रेरी सभागार में ड़हटवाल ने कहा कि उत्तराखंड हिमालय के ग्राम्य जीवन में ढोल की जड़ें गहरी समायी हैं। ढोल के बगैर यहां का लोक और सामाजिक जीवन अधूरा है, कोई भी समारोह पूर्ण नहीं। ढोल है तो छोटे आयोजन भी बड़े हो जाते हैं। इसे यहां देववाद्य, मांगलिक वाद्य, शगुन वाद्य, द्यो बाजणु भी कहा जाता है। संगीत की भाषा में इसे अवनद्घ, चर्मवाद्य, खाल वाद्य, ताल वाद्य या थाप वाद्य भी कह सकते हैं। बगड्वाल, पाण्डव, छोलिया, पौंणा, मंडाण, चक्रव्यूह, रम्माण, तांदी और जागरों की प्रस्तुति में ताल वाद्य के रूप में ढोल ही बजता है। जन्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, जनेऊ, शादी, मृत्यु, शवयात्रा जैसे सोलह संस्कार यथा व कर्मकाण्डों से ढोल गहराई से जुड़ा है। तेरहवीं के दिन ढोल वादकों को बुला कर अबाजे को तोड़ने की परम्परा है। स्वागत और सम्मान भी ढोल से प्रकट किया जाता है। राज्य आंदोलन में तो ढोल चेतना, जागृति का प्रमुख वाद्य भी रहा। लोकसाहित्य में ढोल तथा ढोल सागर के लोकमंचों से आधुनिक मंचों और माध्यमों तक पहुंचने तक की ढोल की यात्रा का विस्तार से वर्णन किया। संचालन करते हुए बिज्जू नेगी ने ढोल वादकों की समस्याओं पर विचार करने, ढोल की कला के संरक्षण, संवर्द्धन को लेकर ठोस रणनीति बनाने पर जोर दिया। मौके पर लोक कलाकार प्रेम हिंदवाल, जगमोहन का शल ओढ़ा कर सम्मान किया गया। कार्यक्रम में प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी, सतीश धौलाखण्डी, ड़योगेश धस्माना, बीना बेंजवाल, निकोलस हफलैण्ड, सुंदर बिष्ट, रमाकांत बेंजवाल, जितेंद्र नौटियाल, दीपिका डिमरी, सोनिया गैरोला मौजूद रहे।