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एक देश-एक चुनाव: भाजपा ने ऐसे बिछा दी बड़ी सियासी बिसात!

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नई दिल्ली, एजेंसी। ‘एक देश एक चुनाव’ के लिए गठित की गई कमेटी से भारतीय जनता पार्टी ने आने वाले दिनों में होने वाले चुनाव के लिए एक बड़ी सियासी बिसात बिछा दी है। सियासी जानकारों का मानना है कि भाजपा की ओर से चले गए इस दांव को कोई भी राजनीतिक दल खुलकर खारिज नहीं कर सकता। क्योंकि अलग-अलग होने वाले चुनावों से जनता भी सीधे तौर पर प्रभावित होती है।
सियासी गलियारों में तो भारतीय जनता पार्टी की ओर से चले गए इस दांव को बालाकोट की सर्जिकल स्ट्राइक से मिले सियासी लाभ की तरह बताया जा रहा है। हालांकि अगर एक देश एक चुनाव की प्रक्रिया लागू हो गई तो क्षेत्रीय दलों के लिए सियासी तौर पर बड़े संकट का सामना भी करना पड़ सकता है।
माना यही जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे पर जनता की पल्स को समझते हुए बड़ा सियासी दांव खेल दिया है। फिलहाल ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावनाओं को तलाशने के लिए बनाई गई कमेटी से देश की सियासत में उबाल आ गया है।
सेंटर फॉर पॉलीटिकल स्ट्रेटजी एंड एलायंसेज के डायरेक्टर हरमीत सिंह कहते हैं कि “एक देश एक चुनाव” वह पब्लिक इंट्रेस्ट का मुद्दा है जो सीधे तौर पर जनता को प्रभावित करता आया है। हरमीत सिंह कहते हैं कि एक देश एक चुनाव का मुद्दा पहली बार सामने नहीं आया है। इससे पहले भी लगातार इस बात की चर्चा होती रही है कि देश में अलग-अलग चुनाव नहीं होने चाहिए। उनका कहना है कि सियासी नजरिए से अगर इसको देखा जाए तो यह भारतीय जनता पार्टी के लिए राजनीतिक तौर पर बड़ा फायदे का मुद्दा माना जा सकता है। क्योंकि यह मुद्दा बिल्कुल उसी तरह से है जैसे देश में भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहता है। वह कहते हैं कि उनकी ओर से लगातार ऐसे तमाम सियासी मुद्दों को लेकर सर्वे भी होते रहे हैं। 2014 और 2019 में किए गए ऐसे सर्वे में यह बात प्रमुखता से सामने आई थी कि हर साल होने वाले अलग-अलग चुनावों से बेहतर है कि एक बार ही चुनाव कराया जाए। इससे लोगों के समय की भी बचत होगी और सरकारी इंतजामों पर होने वाले खर्च मे भी भारी कटौती हो सकेगी।
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक देवेश चतुर्वेदी कहते हैं कि वैसे तो यह फैसला सियासी तौर पर बड़ी चुनौतियां वाला है। क्योंकि इसके लिए क्षेत्रीय संगठन खुलकर समर्थन करने से कतरा सकते हैं। इसके पीछे वह तर्क देते हैं कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के मुद्दे पूरी तरह से अलग होते हैं। चूंकि क्षेत्रीय दल हमेशा स्थानीय मुद्दे और विधानसभा के लिहाज से चुनावी तैयारी करते हैं। ऐसे में अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो मुद्दों की राजनीति में क्षेत्रीय दल खुद को इतना मजबूत नहीं पाएंगे। इसके अलावा देवेश चतुर्वेदी कहते हैं कि सदन में अगर इस पर प्रस्ताव को लाया जाता है तो यह लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों के अलावा इसमें साथ देश के अलग-अलग राज्यों की सहमति की भी आवश्यकता पड़ेगी।
सियासी जानकारों का कहना है यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर जनता आंख बंद करके समर्थन करती है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी की ओर से इस मुद्दे को आगे बढ़ाना उनके लिए न सिर्फ बड़ा सियासी दांव है बल्कि आने वाले चुनाव में इसको गेम चेंजर के तौर पर भी देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषण हरिओम तंवर कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी साल में एक देश एक चुनाव की बात को उठाकर सियासत में फिलहाल बड़ी हलचल तो पैदा ही कर दी है। उनका मानना है कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिसको लेकर कोई भी राजनीतिक पार्टी अगर चुनावी मैदान में भी जनमत संग्रह करती है तो भी उसको जमकर समर्थन मिलना तय है। क्योंकि अलग-अलग एजेंसियों और सियासी दलों की और से उठाए जाने वाले इन मुद्दों पर जनता की राय तकरीबन एक सी ही सामने आई है।
राजनीति के जानकारों का मानना यह भी है कि एक देश, एक चुनाव अगर देश में लागू हो जाता है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान क्षेत्रीय दलों को होगा। दरअसल लोकसभा चुनाव में आमतौर पर मतदाता राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर और राष्ट्रीय पार्टी को वोट देना पसंद करते हैं। ऐसे में अगर लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव होंगे तो हो सकता है कि क्षेत्रीय दलों को इसका नुकसान झेलना पड़े। लेकिन कोई भी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल इस मुद्दे का खुलकर विरोध नहीं कर सकता। राजनीतिक दलों का भी मानना है कि अलग-अलग चुनाव नहीं होने चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र शुक्ला कहते हैं कि राजनीतिक दलों का यह मानना इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि इसमें जनता सीधे तौर पर जुड़ी हुई है। वह कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के लिए मुद्दा उठाना फिलहाल सियासी रूप से मजबूत माना जा रहा है। अगर ऐसा होता है तो आने वाले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए यह मुद्दा बालाकोट की सर्जिकल स्ट्राइक जैसा ही सियासी रूप से फायदेमंद हो सकता है।

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