सुप्रीम कोर्ट ने गंगा में तैरती लाशों की एसआईटी जांच की मांग वाली याचिका पर विचार करने से किया इनकार
नई दिल्ली, एजेंसी। मृतकों के अधिकारों और शवों के अंतिम संस्कार के लिए एक नीति बनाने के साथ शवदाह व एंबुलेंस की दरें तय करने की मांग को लेकर दायर याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष ले जाने का निर्देश दिया है। इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इस याचिका पर विचार करने से इन्कार कर दिया।
जस्टिस नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ ने याचिकाकर्ता के वकील को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को स्थानांतरित करने की स्वतंत्रता देते हुए कहा कि आप जो समस्या उठा रहे हैं वह गंभीर समस्या है। हम इससे सहमत हैं। लेकिन मौजूदा समय में अब ऐसी स्थिति नहीं है। इस समस्या के संबंध में आप राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जाएं। एनएचआरसी इन मुद्दों का ध्यान रखेगा।
अधिवक्ता प्रदीप कुमार यादव की ओर से दाखिल जनहित याचिका (पीआईएल) में अधिकारियों को बक्सर, गाजीपुर और उन्नाव जिले में गंगा नदी में तैरते हुए पाए गए शवों का पोस्टमर्टम करने और मामले की जांच के लिए एसआईटी गठित करने का निर्देश देने की मांग की गई थी।
याचिका में कहा गया था कि गंगा नदी से इन सड़ी-गली लाशों की बरामद्गी गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि नदी का पानी कई क्षेत्रों के लिए जल स्रोत के रूप में कार्य करता है और यदि शव कोरोना से संक्रमित थे तो दूषित पानी के कारण यह महामारी दोनों राज्यों के गांवों में फैल सकती है। याचिका में कहा गया था कि राज्यों ने अब तक पानी के शुद्घिकरण की दिशा में एक भी प्रभावी कदम नहीं उठाया है जो तैरती सड़ी-गली लाशों के कारण दूषित हो गया है। दोनों ही राज्य अपने मूल निवासियों को स्वच्छ पानी उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं। यह संविधान के अनुच्छेद 21 की अवहेलना है।
याचिका में दलील दी गई थी कि परमानंद कटारा बनाम भारत के मामले में शीर्ष अदालत ने माना था कि एक व्घ्यक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा और निष्पक्ष उपचार का अधिकार न केवल उसके जीवन के दौरान ही नहीं वरन मृत्यु के बाद उसके मृत देह पर भी उपलब्ध है।
सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि गंगा में शव बहाने की घटनाओं की पृष्ठभूमि में मृतकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक नीति के लिए दिशा-निर्देश मांगे जा रहे हैं। वकील ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता के संगठन ने इस मुद्दे को हाई कोर्ट के समक्ष उठाया लेकिन अभी तक इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया।