उदयपुर के चिंतन शिविर में कांग्रेस के सामने दुविधा खत्म करने की चुनौती, पार्टी के सामने अब केवल करो या मरो का विकल्प
नई दिल्ली, एजेंसी। अपनी राजनीतिक जीवन यात्रा के सबसे नाजुक दौर से रूबरू हो रही देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस उदयपुर में चिंतन शिविर के जरिये सियासी वापसी की राह तलाशने जा रही है। करीब दो दशक पहले शिमला चिंतन बैठक से कांग्रेस की राजनीतिक किस्मत पलटने के इतिहास को देखते हुए पार्टी के लाखों कार्यकर्ताओं को उदयपुर से उम्मीद की किरण फूटने का बेसब्री से इंतजार है। मगर संगठन और राजनीतिक प्रभाव के मोर्चे पर कांग्रेस आज जिस गंभीर ढलान पर है, उसमें 2003 के शिमला संकल्प से पार्टी के अच्टे दिनों की राह निकालने के इतिहास को दोहराना कहीं ज्यादा चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है।
उदयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस के सामने अपनी दो सबसे गंभीर समस्याओं श्लीडरशिपश् और श्स्ट्रैटजीश् (नेतृत्व व रणनीति) पर निरंतर जारी ऊहापोह का समाधान निकालने की सबसे बड़ी चुनौती है। अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती दौर में शिमला चिंतन बैठक से ही कांग्रेस में सोनिया गांधी की रणनीति और नेतृत्व कौशल की छवि सियासी पटल पर उभर कर सामने आई थी। तभी चाहे पार्टी के असंतुष्ट नेता हों या नेतृत्व के प्रति निष्ठावान, सब यही उम्मीद कर रहे हैं कि सोनिया गांधी उदयपुर में कम-से-कम लीडरशिप और स्ट्रैटजी की स्पष्ट दिशा तो दिखाएंगी ही, जिस पर आगे बढ़ते हुए शिमला संकल्प के इतिहास को दोहराने की राह बनाई जा सके।
कांग्रेस का सियासी कायाकल्प करने के लिए चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के पार्टी में आने की राह चाहे नहीं बन पाई हो, मगर उदयपुर चिंतन शिविर में मंथन की दशा-दिशा तो उन्होंने दे ही दी है। शीर्ष से लेकर निचले स्तर तक संगठन की खामियों, चुनावी कमजोरियों से लेकर कमोबेश पार्टी की हर चुनौती का खाका सामने है। अब कांग्रेस के सामने उदयपुर से न केवल अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं में उम्मीद जगाने की चुनौती है, बल्कि देश को भी यह भरोसा दिलाने की बड़ी जिम्मेदारी है कि विपक्षी विकल्प के तौर पर पार्टी की प्रासंगिकता कायम है। पार्टी की राजनीतिक हालत 2003 के मुकाबले कहीं ज्यादा नाजुक है। ऐसे में कांग्रेस को श्करो या मरोश् की राह में किसी एक का चुनाव करना ही होगा। मगर पार्टी के सामने विकट स्थिति है कि लीडरशिप के सवाल पर गांधी परिवार के तीन चेहरों के अलावा चौथा विकल्प अब तक नहीं है।
वहीं राजनीतिक स्ट्रैटजी के मोर्चे पर कुछ नए उभरे क्षेत्रीय दल कांग्रेस को नौसिखिया साबित कर रहे हैं। पंजाब, उत्तराखंड से लेकर गोवा के ताजा चुनावों में कांग्रेस की लचर रणनीति इसका नमूना है। बेशक शिमला चिंतन शिविर के बाद कांग्रेस की लीडरशिप और स्ट्रैटजी दोनों स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आई।
सोनिया गांधी के नेतृत्व ने ऐसा भरोसा पैदा किया कि कांग्रेस उनको 2004 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री चेहरे के रूप में पेश कर मैदान में उतरी। सारे राजनीतिक पंडितों के अनुमानों को गलत साबित करते हुए सोनिया ने गठबंधन राजनीति के सहारे अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता को चुनावी शिकस्त देते हुए कांग्रेस की सत्ता में वापसी कराई।
हालांकि, कांग्रेस को इस मुकाम पर पहुंचाने से पहले सोनिया गांधी ने पार्टी की कठिन चुनौतियों में व्यावहारिक राजनीति की राह पर चलने का लचीला रुख अपनाया। सोनिया गांधी के पहली बार अध्यक्ष बनने के बाद 1998 में पचमढ़ी सम्मेलन में कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति को खारिज करते हुए एकला चलो की राह पर चलने की घोषणा की थी। लेकिन एकला चलो में बहुत पीटे टूट जाने के खतरों को भांपते हुए सोनिया गांधी ने स्ट्रैटजी बदली और शिमला चिंतन बैठक में पहली बार समान विचाराधारा वाले धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ गठबंधन करने का एलान किया।
इसी तरह आंध्र प्रदेश में टीआरएस के साथ गठबंधन कर 10 साल के सत्ता के सूखे को खत्म किया। कांग्रेस से अलग हुए शरद पवार को साथ लेने से लेकर उत्तर प्रदेश के दोनों प्रमुख दलों के नेताओं मुलायम सिंह यादव और मायावती से अच्टे सियासी समीकरण बनाने, वामपंथी दलों को जोड़ने जैसे कदमों का ही नतीजा था कि शिमला के बाद एक दशक तक कांग्रेस केंद्र और राज्यों की सत्ता में हावी रही। इसे देखते हुए उदयपुर में भाजपा-नरेन्द्र मोदी पर राजनीतिक हमला करने से कहीं ज्यादा अहम कांग्रेस के लिए अपने कार्यकर्ताओं को कम-से-कम उम्मीद के दरवाजे पर खड़ा करना है, जहां उन्हें पार्टी के सुनहरे दौर की वापसी की उम्मीद दिखे।