बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील हो रवैया, तो समाज से समाप्त हो जाए वृद्घाश्रम की अवधारणा

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नई दिल्ली, एजेंसी। बुजुर्गों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए एक अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय वृद्घजन दिवस’ मनाया जाता है। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि ऐसी पहल समाज में बुजुर्गों की दशा-दिशा सुधारने में सहायक सिद्घ हुई है या नहीं। इस प्रश्न को वास्तविकता की कसौटी पर कसें तो संभव है कि उत्तर सकारात्मक न मिले। बुजुर्गों की समस्याओं के प्रति परिवार, समाज और सरकार की उदासीनता ही आज के दौर का कटु सत्य है।
बुजुर्गों का बड़ा हिस्सा इस समय स्वयं को समाज से कटा हुआ और मानसिक प्रताड़ना की अनुभूति कर रहा है। यह असंवेदनशीलता उनके लिए बहुत पीड़ादायी है। तिनका-तिनका जोड़कर अपने बच्चों के लिए आशियाना बनाने वाले लोग आज वक्त की ठोकरों से मजबूर होकर ठगा सा महसूस कर रहे हैं। नि:संदेह भौतिकवादी सभ्यता और एकाकी परिवार का उभार ही बुजुर्गों की उपेक्षा का मुख्य जिम्मेदार है। युवा पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच दूरियां बढ़ने का बड़ा कारण सोच व समझ में तालमेल का अभाव है।
तमाम कामकाजी युवा सोचते हैं कि बुजुर्गों के लिए घर से ज्यादा वृद्घाश्रम उचित हैं, जहां उन्हें उनकी सोच और हमउम्र लोग मिल जाएंगे, जो उनकी बातों को सुनेंगे और समझेंगे। वहां वे खुश रह सकते हैं, परंतु ऐसा सोचने वाले युवाओं को क्या पता कि मां-बाप की असल खुशी तो अपने परिवार में होती है। उनसे दूर रहकर भला वे खुश कैसे रह सकते हैं? यदि हम उन्हें सम्मान व परिवार में महत्व देंगे तो शायद वृद्घाश्रम की अवधारणा ही इस समाज से समाप्त हो जाएगी।
वृद्घजनों को लेकर बिगड़ रही स्थिति को सुधारने के लिए आवश्यक है कि परिवार में आरंभ से ही बुजुर्गों के प्रति अपनत्व का भाव विकसित किया जाए। हमें नया भावनात्मक सोच विकसित करने की जरूरत है, ताकि बुजुर्ग परिवार व समाज में खोया सम्मान पा सकें। जिस प्रकार हम भविष्य के बारे में सोचकर योजनाएं बना लेते हैं, उसी प्रकार से हमें बुजुर्गों के लिए भी मानवता और फर्जों की पूंजी में निवेश करना होगा, क्योंकि यह वक्त हर किसी को देखना है।
सरकार को भी कई देशों की तरह ऐसे कड़े नियम और कानून बनाने चाहिए, ताकि वरिष्ठ नागरिकों के स्वावलंबन एवं आत्मसम्मान को किसी प्रकार से ठेस न पहुंचे और वे किसी के हाथों की कठपुतली न बनें। परिवार की शान कहे जाने वाले हमारे बड़े-बुजुर्ग आज परिवार में अपने ही अस्तित्व को तलाशते नजर आ रहे हैं। यह हमारे लिए गंभीर चिंतन का विषय है। बाल गंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि, ‘तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्घि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है।’ इसलिए, हमें तो उनके अनुभव का अपने जीवन को समृद्घ बनाने में उपयोग करना चाहिए।

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