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कुरुक्षेत्र: विदेश नीति तटस्थ, पर घरेलू राजनीति में घमासान; इस्राइल-फलस्तीन मामले में वोट बैंक की सियासत हावी

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नई दिल्ली, एजेंसी। दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई ऐसी घटना हो जिसमें मुसलमानों की कोई भूमिका हो उसका असर कहीं और पड़े न पड़े, लेकिन भारत की घरेलू राजनीति पर जरूर पड़ता है।अमेरिका में अलकायदा के आतंकवादी नौ ग्यारह का हमला करते हैं तो उसकी आंच भारत में महसूस होती है। इराक लीबिया, अफगानिस्तान, सीरिया कहीं भी अमेरिकी फौजें हमला करती हैं, बारूद की गंध भारत तक महसूस होती है।आईएसआईएस का आतंकवादी कहर इराक से लेकर खाड़ी के दूसरे देशों में पहुंचता है, तनाव भारत में भी देखा जाता है।
अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी होती है, सिहरन भारत में महसूस होती है और अब इस्राइल पर हमास के भीषण हमले और प्रतिक्रिया में इस्राइल की उतनी ही भीषण सैनिक कार्रवाई ने भी भारतीय राजनीति को गरम कर दिया है। भीतर ही भीतर देश दो खेमों में बंटता दिख रहा है। अखबारों में बयानों और सोशल मीडिया पर नजर डालें तो एक पक्ष इस्राइल के साथ डट कर खड़ा है तो दूसरा पक्ष फलस्तीन का नाम लेकर हमास के हमले पर तो खामोश है, लेकिन गाजा पर इस्राइली हमले के खिलाफ है।
क्या समाज और क्या राजनीति, सब बंटे हुए हैं। विदेश नीति के किसी मुद्दे पर ऐसा बंटवारा पहले कम ही देखा गया है। भले ही खाड़ी क्षेत्र में गाजा के पास वेस्ट बैंक हो, लेकिन भारत में इस मुद्दे पर वोट बैंक की राजनीति हावी है, जबकि इस्राइल गाजा का वर्तमान संकट राजनीति और कूटनीति से परे नितांत मानवीय संकट है। हाल ही में गाजा में अल आहिली अस्पताल पर हुए हमले के बाद विश्व जनमत की प्रतिक्रिया ने इस्राइल को असहज कर दिया है और उसे बचाव की मुद्रा में आना पडा।
इस हमले में सैकड़ों लोगों के मारे जाने की खबर है और इससे नाराज अरब देशों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ होने वाली अपनी बैठक रद्द कर दी। भारत ने भी इस घटना को लेकर दुख जताया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना पर गहरा अफसोस जताते हुए मृतकों को श्रद्धांजलि दी और घायलों के जल्दी स्वस्थ होने की प्रार्थना की है।
प्रधानमंत्री ने कहा कि वर्तमान में जारी संघर्ष में नागरिकों की मौत गंभीर चिंता का विषय है। इसमें जो भी शामिल हैं, उन्हें इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान से भारत में भी इस्राइली कार्रवाई के अंध समर्थकों को झटका लगा है और एक बार फिर भारत की तटस्थ नीति और हर तरह की हिंसा के खिलाफ उसके सतत रुख की बात साबित हुई है।
जब हमास ने इस्राइल की अभेद्य सुरक्षा प्रणाली, अचूक खुफिया तंत्र और अपराजेय सैन्य शक्ति को धता बताते हुए अचानक इस्राइल पर ऐसा भीषण हमला किया, जो सबकी कल्पना से परे था और जिसमें यहूदी त्योहार मना रहे सैकड़ों निर्दोष इस्राइली नागरिकों की बेरहमी से हत्या की गई, महिलाओं और बच्चों के साथ दरिंदगी हुई और अनेक नागरिकों जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं को बंधक बना लिया गया।
इस हमले ने इस्राइल और अमेरिका समेत पूरे पश्चिमी जगत को हिला दिया और उनका पूरा समर्थन इस्राइल को मिल गया। इस घटना का असर शेष विश्व में भी देखा गया और अनेक देशों ने हमास के आतंकवादी हमले की घोर निंदा की। यहां तक कि आजादी के बाद से लगातार फलस्तीन के आंदोलन का समर्थन करने वाले भारत ने भी अपनी पहली प्रतिक्रिया में इस्राइल के साथ एकजुटता दिखाई।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि संकट की इस घड़ी में भारत पूरी तरह से इस्राइल के साथ खड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को फोन पर भारत के समर्थन का भरोसा दिया। नेतन्याहू ने मोदी को फोन करके हमास हमले के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
उधर इस्राइल पर हमले और जवाब में गाज़ा पर इस्राइली बमबारी और सैनिक कार्रवाई पर देश के प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने अपनी कार्यसमिति की बैठक में जो प्रस्ताव पारित किया उसमें फलस्तीन के साथ अपनी एकजुटता तो प्रदर्शित की, लेकिन हम्मास के हमले की न कोई निंदा की गई और न ही उसका जिक्र किया गया।
प्रस्ताव में कहा गया कि भारत की नीति शुरू से ही एक संप्रभु और स्वतंत्र फलस्तीन की स्थापना के पक्ष में रही है और कांग्रेस इस नीति का समर्थन करते हुए फलस्तीन की जनता की मांग के साथ है।कांग्रेस के इस प्रस्ताव और इस्राइल को मोदी के समर्थन ने देश में नई बहस को जन्म दे दिया। देश वैचारिक रूप से दो हिस्सों में बंट गया। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री के रुख का समर्थन करते हुए यह कहते हुए कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया कि जब भारत सरकार हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ है तब कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करते हुए आतंकवादी संगठन हमास के साथ खड़ी है।
उधर कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस्राइल को एकतरफा समर्थन की घोषणा को भारत की पश्चिम एशिया में भारतीय विदेश नीति के अब तक के रुख के उलट बताते हुए आलोचना की, लेकिन जल्दी ही दोनों ही पक्षों ने संतुलन साधा। प्रधानमंत्री मोदी के बयान के दो दिन बाद विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया कि इस्राइल फलस्तीन विवाद पर भारत की नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है और भारत इस्राइल के साथ फलस्तीन के स्वतंत्र अस्तित्व और देश की स्थापना की अपनी मांग पर कायम है। साथ ही भारत हर तरह के आतंकवाद के खिलाफ है।
उधर मीडिया और सोशल मीडिया में आई आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद कांग्रेस ने भी संतुलन साधा और कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने इस्राइल पर हमास के हमले को गलत बताते हुए उसकी निंदा की। इस मुद्दे पर राजनीति की रोटियां हर तरफ सेंकी जाने लगी हैं। जो इस्राइल पर हमास के हमले की निंदा कर रहे हैं वो गाजा पर इस्राइली बमबारी और निर्दोष नागरिकों पर सैनिक कार्रवाई पर चुप हैं और जो गाजा पर इस्राइली हमले को इंसानियत के खिलाफ बता कर जुलूस निकाल रहे हैं वो हमास की बर्बरता पर खामोश हैं।मानों इंसानियत को भी खेमों में बांटकर देखा जाने लगा है।
दरअसल, दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिका समेत विजेता पश्चिमी देशों ने यहूदियों के लिए फलस्तीन की जमीन पर इस्राइल का गठन करके जो विवाद पैदा किया वो आज तक जारी है। इस विवाद ने न जाने कितनी जानें ली हैं और इस पूरे इलाके को स्थाई रूप से अशांत कर दिया है। आजादी के पहले से ही भारत स्वतंत्र फलस्तीन के पक्ष में रहा है और खुद महात्मा गांधी ने फलस्तीन की जमीन पर एक अलग देश इस्राइल बनाए जाने का विरोध किया था।
आजादी के बाद नेहरू से लेकर खुद मोदी सरकार तक ने फलस्तीन का समर्थन किया। यहां तक कि जब भी संयुक्त राष्ट्र में फलस्तीन को लेकर कोई प्रस्ताव आया भारत का रुख हमेशा इस्राइल के खिलाफ और फलस्तीन के समर्थन में रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने इस्राइल और फलस्तीन दोनों की यात्रा की है। वह तेलअबीब और रामल्ला दोनों जगह गए हैं। उन्होंने इस्राइल और उसके दुश्मन माने जाने वाले अरब देशों के बीच शानदार संतुलन साधकर खाड़ी क्षेत्र में भारत के हितों को बेहतर तरीके से सुरक्षित किया है, लेकिन देश की घरेलू राजनीति में इस्राइल फलस्तीन विवाद को हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
राजनीतिक दल इसका चुनावी फायदा नवंबर में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों और अगले साल अपैल में होने वाले लोकसभा चुनावों में उठाना चाहते हैं। इसलिए जहां भाजपा और उसके समर्थक खुद को पूरी तरह इस्राइल के साथ खड़ा दिखाकर हमास के आतंकवाद की आड़ में मुस्लिमों के खिलाफ हिंदुओं का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं, वहीं कांग्रेस और उसके समर्थक इंडिया गठबंधन के दल हमास पर चुप्पी साधकर फलस्तीन का समर्थन करते हुए देश भर के मुसलमानों की सहानुभूति और समर्थन बटोरना चाहते हैं। जबकि यह पूरा मामला हिंदू बनाम मुस्लिम या यहूदी बनाम मुस्लिम का नहीं बल्कि इस्राइल की अपनी सुरक्षा और फलस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का है। इसका समाधान इस्राइल और फलस्तीन के सहअस्तित्व में ही है न कि इस्राइल या गाजा और आसपास के फलस्तीनी क्षेत्र को मिटाकर।
समाधान यही है कि फलस्तीन की जिस अतिरिक्त जमीन पर इस्राइली कब्जा है उसे खाली करके मुकम्मल देश फलस्तीन की स्थापना हो और फलस्तीन समेत सभी अरब देश इस्राइल के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के तहत पूरे क्षेत्र का विकास हो, लेकिन इसमें एक बाधा जहां अमेरिका समेत पश्चिमी राष्ट्र हैं जो इस समस्या को इतने दशकों से न सिर्फ लटकाए हुए हैं बल्कि इस्राइल के हर जायज नाजायज कदम का समर्थन करते हुए उसका हौसला भी बढ़ाते हैं जिसकी वजह से फलस्तीनी इलाके का क्षेत्रफल 1947 से सिमटते सिमटते गाजा पट्टी पश्चिमी तट(वेस्ट बैंक) के कुछ इलाकों तक ही रह गया है।
वहीं अरब देशों के शाही शासक भी खुले मन से अपने आस पास एक लोकतांत्रिक इस्लामी देश का गठन नहीं चाहते हैं। इसलिए वो मौखिक और नैतिक रूप से फलस्तीन का समर्थन तो करते हैं, लेकिन फलस्तीन देश बने इसके लिए कोई ठोस पहल उनकी तरफ से नहीं होती है, जबकि अरब देश मिलकर और भारत जैसे देशों से सहयोग लेकर इस मुद्दे पर अमेरिका और पश्चिमी देशों पर स्वतंत्र फलस्तीन के गठन का दबाव बना सकते हैं। उनकी तेल कूटनीति ने भी इसके लिए ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लगे कि वह फिलिस्तीन के निर्माण के लिए वास्तव में इच्छुक हैं। इन अरब देशों की सारी कोशिश सिर्फ खानापूरी तक ही सीमिति है।
यही वजह है कि एक समय जिस फलस्तीनी आंदोलन का नेतृत्व फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन और उसके नेता यासिर अराफात जैसे शांतिप्रिय और लोकप्रिय हाथों में था, जिसे संयुक्त राष्ट्र समेत कई देशों ने मान्यता दे रखी थी, उसका असर धीरे धीरे कमजोर होता गया और हमास जैसे उग्रवादी संगठन जो अब आतंकवादी श्रेणी में आ गया है, का कब्जा फिलिस्तीन आंदोलन पर बढ़ता चला गया। यासिर आराफात के साथ भारत के रिश्ते बेहद मधुर और दोस्ताना थे। 1971 में जब बांग्लादेश बना और पाकिस्तान की पराजय हुई तब तिलमिलाए पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी में शिकायत करते हुए मांग की कि भारत के खिलाफ तेल प्रतिबंध लगाए जाएं।
इस बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यासिर अराफात से भारत का पक्ष रखने के लिए अनुरोध किया और अराफात ने मजबूती के साथ भारत का पक्ष रखते हुए पाकिस्तान को करारा जवाब दिया और कहा कि पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान की फौज ने जिनका कत्लेआम किया वह भी मुसलमान ही थे और भारत ने उनकी हिफाजत की है। इसके बाद भारी बहुमत से भारत के खिलाफ प्रस्ताव गिर गया और सिर्फ तीन देशों पाकिस्तान, तुर्की और लीबिया ने भारत का विरोध किया। वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी इस्राइल और फलीस्तीन दोनों के बीच भारत के संबंधों को मजबूत कर रहे हैं। इस्राइल के साथ भारत के कई रक्षा सौदे और व्यापारिक रिश्ते हैं, जबकि फलस्तीन को लेकर भारत का रुख सहानुभूतिपूर्ण है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, हमास ने इस्राइल पर यह हमला भी अरब देशों के इस्राइल से सुधरते रिश्तों की डोर काटने के लिए किया है। अब संयुक्त राष्ट्र अरब देशों और पश्चिमी देशों की जिम्मेदारी है कि वह फिलिस्तीन इस्राइल विवाद का निबटारा जल्दी से जल्दी करने की कोशिश करें। भारत इसमें अहम भूमिका निभा सकता है।

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