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राम मंदिर का विवादों और संघर्ष से रहा नाता

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अयोध्या, एजेंसी। उत्तर प्रदेश में अयोध्या स्थित राम मंदिर लंबे समय से चले आ रहे धार्मिक एवं राजनीतिक विवाद का केंद्र रहा है और इसके निर्माण को लेकर एक दृढ़ आंदोलन का ही प्रतिफल रहा जो आज भगवान राम की मूर्ति का प्राणप्रतिष्ठा के रूप साकार रूप में सामने आया। अतीत के झरोंखों में झांकने से अयोध्या के राम मंदिर का विवादों और संघर्षों की झलक दृष्टिगोचर होती है। मंदिर के निर्माण में डेढ़ शताब्दी से अधिक समय लगा। समयांतर में इसने लंबी कानूनी लड़ाई, सांप्रदायिक झगड़े, दंगे और रक्तपात को भी जन्म ही नहीं दिया , बल्कि दशकों तक एक ज्वलंत चुनावी मुद्दा बना रहा।
राम मंदिर लंबे समय से विवादित रहे जिस स्थल पर बनाया गया है, वहां 16 वीं शताब्दी की एक मस्जिद थी। इतिहास के पन्नों से पता चलता है कि मुगल सम्राट बाबर के संस्थापक के सेनापति मीर बाकी ने मस्जिद-ए-जन्मस्थान (बाबरी मस्जिद) बनाने के लिए अयोध्या में एक मंदिर को तोड़ दिया था। यह मस्जिद सदियों तक उस स्थान पर खड़ा रहा, जब तक कि 1992 में हिंदू कारसेवकों ने इसे ध्वस्त नहीं कर दिया। इस घटना से देश में व्यापक हिंसा और सांप्रदायिक तनाव फैल गया। अयोध्या विवाद उस स्थान के स्वामित्व के इर्द-गिर्द घूमता है जहां मस्जिद-ए-जन्मस्थान था और क्या यह भगवान राम का जन्मस्थान था। मस्जिद को लेकर विवाद की पहली झलक इसके निर्माण के 300 साल बाद दिखी। वर्ष 1853 और 1855 के बीच सुन्नी मुसलमानों के एक समूह ने हनुमानगढ़ी मंदिर पर हमला किया और दावा किया कि मंदिर मस्जिद को तोड़कर बनाया गया था, हालांकि इसका कोई सबूत नहीं पाया गया।
पहली बार 1858 में उस एक घटना के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी थी, जिसमें निहंग सिखों एक समूह ने मस्जिद-ए-जन्मस्थान में प्रवेश किया और यह दावा करते हुए हवन किया था कि वहां भगवान राम का नाम लिखा गया था। मस्जिद की दीवारों पर और उसके बगल में एक मंच बनाया गया था। वर्ष 1859 में ब्रिटिश सरकार ने एक दीवार बनवायी ताकि हिंदू और मुस्लिम पक्ष अलग-अलग स्थानों पर पूजा और प्रार्थना कर सकें। यहीं से राम चबूतरा शब्द पहली बार प्रयोग में आया। मंदिर-मस्जिद विवाद पहली बार 1885 में अदालत में पहुंचा जब निर्मोही अखाड़े के महंत रघुवीर दास ने राम चबूतरे पर मंदिर बनाने के लिए याचिका दायर की, लेकिन फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट ने याचिका खारिज कर दी। इसके बाद महंत दास ने फैजाबाद अदालत में याचिका दायर की, जिसे खारिज कर दिया गया। उन्होंने हार नहीं मानी और ब्रिटिश सरकार के न्यायाधीश के समक्ष अपील दायर की, लेकिन याचिका एक बार फिर खारिज कर दी गयी। अगले 48 वर्षों तक मामला लटका रहा और छिटपुट शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन जारी रहे। वर्ष 1930 के दशक में अयोध्या का एक नया अध्याय शुरू हुआ। पहली बार दो मुस्लिम समुदायों झ्र शिया और सुन्नी झ्र के बीच झगड़ा सामने आया। दोनों मस्जिद-ए-जन्मस्थान पर अपना-अपना अधिकार जता रहे थे। दोनों समुदायों के वक्फ बोर्डों ने मामला उठाया और 10 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी। अदालत ने हालांकि शिया समुदाय के दावों को खारिज कर दिया। विभाजन और भारत की आज़ादी के बाद अयोध्या आंदोलन का स्वरूप बदल गया।
लेखक कृष्णा झा और धीरेंद्र झा की किताब अयोध्या ‘द डार्क नाइट’ के अनुसार तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस ने बाद के वर्षों में पहली बार राम मंदिर को मुद्दा बनाया और फैजाबाद में चुनाव जीता। इस समय तक स्थिति काफी खराब हो चुकी थी। वर्ष 1949 में एक दिन यह दावा किया गया कि मस्जिद-ए-जन्मस्थान के अंदर राम की मूर्ति मिली थी। घटना की प्राथमिकी में कहा गया था कि 50 या 60 लोगों की भीड़ ने चढ़कर बाबरी मस्जिद के परिसर में लगे ताले तोड़ दिए थे। अवैध रूप से सीढ़ियां लगाकर दीवारों पर श्री भगवान की मूर्ति रख दी गई। इसके बाद स्थिति बिगड़ गई और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। मात्र छह दिन के अंदर मस्जिद-जन्मस्थान पर ताला लगा दिया गया।
वर्ष 1959 में फैजाबाद अदालत में दो अलग-अलग मामले दायर किए गए और हिंदू पक्ष ने राम लला की पूजा करने की अनुमति मांगी। अदालत ने हालांकि इजाजत दे दी, लेकिन अंदर का गेट बंद रखा गया। इसी साल निर्मोही अखाड़ा ने मस्जिद-ए-जन्मस्थान की भूमि पर अधिकार की मांग करते हुए तीसरा मुकदमा दायर किया। इसके बाद 1961 में मुस्लिम पक्ष ने एक मामला दायर किया जिसमें उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने तर्क दिया कि वे बाबरी मस्जिद ढांचे पर अधिकार चाहते हैं और राम की मूर्तियों को वहां से हटा दिया जाना चाहिए।
वर्ष 1984 में मामला उस समय फिर गरमा गया जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राम मंदिर आंदोलन शुरू किया गया। वहीं दो साल बाद 1986 में केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के आदेश पर मस्जिद-ए-जन्मस्थान के अंदर का द्वार खोल दिया गया। यह द्वार खुलवाने की मांग को लेकर अधिवक्ता यूसी पांडे ने फैजाबाद सत्र अदालत में याचिका दायर की थी। सत्र न्यायाधीश ने हिंदुओं को पूजा करने और दर्शन करने की इजाजत दे दी, लेकिन बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने इसका विरोध किया।
वर्ष 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विश्व हिंदू परिषद को विवादित स्थल पर शिलान्यास करने की अनुमति दी। इसके बाद पहली बार रामलला का मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुंचा, जिसमें निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने रामलला जन्मभूमि पर अपना दावा पेश किया। वर्ष 1990 में श्री आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक रथ यात्रा शुरू की। रथ-यात्रा के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक दंगे हुए। छह दिसंबर- 1992 को कारसेवकों ने मस्जिद-ए-जन्मस्थान को ढहा दिया और वहां एक अस्थायी मंदिर बना दिया। मस्जिद के विध्वंस के 10 दिन बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने मस्जिद के विध्वंस और सांप्रदायिक दंगों की परिस्थितियों की जांच के लिए सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एमएस लिब्रहान के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया। नरसिम्हा राव सरकार ने 07 जनवरी, 1993 को 67.7 एकड़ भूमि (स्थल और आसपास के क्षेत्र) का अधिग्रहण करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया। बाद में इसे केंद्र सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण की सुविधा के लिए एक कानून के रूप में पारित किया गया। वर्ष 1994 में शीर्ष न्यायालय ने 3:2 के बहुमत से इस आधार पर कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखा कि प्रत्येक धार्मिक अचल संपत्ति अधिग्रहण के लिए उत्तरदायी है।
शीर्ष न्यायालय ने फैसला दिया कि मस्जिद में नमाज तब तक नहीं पढ़ी जा सकती जब तक कि उस मस्जिद का इस्लाम में कोई विशेष महत्व न हो। इस फैसले के खिलाफ कोई समीक्षा याचिका दायर नहीं की गयी। अयोध्या स्वामित्व विवाद अप्रैल 2002 में शुरू हुआ और इसकी सुनवाई इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में शुरू हुई। अगस्त 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मस्जिद स्थल पर खुदाई शुरू की और दावा किया कि मस्जिद के नीचे 10वीं सदी के मंदिर के साक्ष्य मिले हैं।
करीब 17 साल बाद 2009 में लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, हालांकि इस रिपोर्ट में क्या था इसका खुलासा नहीं हुआ। अब तक हर पक्ष अपने लिए अयोध्या की जमीन मांगता रहा है, लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया। इसके अंतर्गत निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और राम लला विराजमान को एक-एक तिहाई हिस्सा दिया गया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले ने देशभर में विवादों को जन्म दे दिया। इसके खिलाफ एक बार फिर याचिका दायर की गयी और 2011 में शीर्ष न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी। वर्ष 2017 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर ने तीनों पक्षों से अदालत के बाहर समझौते के बारे में पूछा। वर्ष 2018 में उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया , हालांकि, इस फैसले को सार्वजनिक नहीं किया गया ।
भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने 2019 में पांच न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया और और 2018 के पुराने फैसले को खारिज कर दिया। शीर्ष न्यायालय ने नवंबर 2019 में हिंदू पक्ष के हित में फैसला सुनाया और राम मंदिर का निर्माण ट्रस्ट के जरिए कराने का आदेश दिया। इसके साथ ही सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में पांच एकड़ जमीन दी गयी, जहां मस्जिद बनाई जानी थी। दिसंबर तक इस मसले पर कई याचिकाएं दाखिल हुईं और शीर्ष न्यायालय ने इन याचिकाओं को खारिज कर दिया।
श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट की स्थापना फरवरी 2020 में हुई थी। सुन्नी वक्फ बोर्ड ने पांच एकड़ जमीन स्वीकार की और अगस्त 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर की आधारशिला रखी। आज (22 जनवरी, 2024) का दिन वह दिन है जब राम मंदिर में राम लला की प्राणप्रतिष्ठा के साथ ही करोडों हिन्दुओं के सपने को साकार किया है।

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