राज्य भी धार्मिक और भाषाई आधार पर घोषित कर सकते हैं अल्पसंख्यक, सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने दिया हलफनामा
नई दिल्ली, एजेसी। राज्य की जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यकों की पहचान किये जाने और अल्पसंख्यकों की पहचान के बारे में दिशानिर्देश तय किये जाने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई 10 मई तक टल गई है। सोमवार को कोर्ट ने केंद्र सरकार के अनुरोध पर सुनवाई छह सप्ताह के लिए टाल दी और केस को 10 मई को फिर सुनवाई पर लगाने का निर्देश दिया। तुषार मेहता ने कोर्ट से समय मांगते हुए कहा था कि उन्होंने केंद्र सरकार की ओर से दाखिल किया गया हलफनामा अभी पढ़ा नहीं है कोर्ट उन्हें उसे पढ़ने और बहस करने के लिए कुछ समय दे दे।
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ ने सालिसिटर जनरल के हलफनामा दाखिल करने के लिए कुछ समय दिये जाने की मांग पर चुटकी लेते हुए कहा कि हलफनामा तो आज अखबारों में छपा है और सालिसिटर जनरल ने अभी उसे पढ़ा नहीं है। मेहता ने कहा कि कुछ जनहित याचिकाओं के दस्तावेज ला आफीसर तक पहुंचने से पहले मीडिया तक पहुंच जाते हैं। कोर्ट ने मेहता का अनुरोध स्वीकार करते हुए उन्हें चार सप्ताह का समय दे दिया साथ ही कहा कि मामले में दाखिल अन्य अर्जियों का भी केंद्र सरकार तब तक जवाब दाखिल कर दे इसके बाद दो सप्ताह का समय याचिकाकर्ता को प्रतिउत्तर दाखिल करने के लिए देते हुए मामले को 10 मई को सुनवाई पर लगाने का आदेश दिया।
उपाध्याय की याचिका में राज्य की जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यकों की पहचान करने और अल्पसंख्यकों की पहचान के बारे में दिशानिर्देश तय किये जाने की मांग के अलावा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग अधिनियम 2004 की धारा 2 (एफ) को भी चुनौती दी गई है। कहा गया है कि इसमें केन्द्र को असीमित शक्तियां दी गई हैं।
इस मामले में केंद्र सरकार की ओर से दाखिल किये गए जवाब में कहा गया है कि कानून के मुताबिक राज्य सरकारें भी अपने राज्य में धार्मिक और भाषाई समुदायों को अल्पसंख्यक घोषित कर सकती हैं। जैसे महाराष्ट्र ने अपने राज्य में यहूदियों को अल्पसंख्यक घोषित किया है। यह विषय समवर्ती सूची में आता है इसलिए इस पर केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का हक है। केंद्र ने कानून की तरफदारी करते हुए कहा कि यह मनमाना नहीं है। कहा है कि धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा सरकार की योजनाओं के लिए पात्रता की गारंटी नहीं देता। योजनाएं अल्पसंख्यकों के बीच आर्थिक और सामाजिक रूस से कमजोर और वंचितों के लाभ के लिए हैं। इन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता।
उपाध्याय की याचिका में अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने की केंद्र की शक्ति की वैधता को चुनौती दी गई है। याचिका में कहा है कि नौ राज्यों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लद्दाख में हिन्दू एक प्रतिशत, मिजोरम में 2़75 प्रतिशत, लक्षद्वीप में 2़77 प्रतिशत, कश्मीर में चार प्रतिशत, नगालैंड में 8़74 प्रतिशत, मेघालय में 11़52 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 29़24 प्रतिशत, पंजाब में 38़49 प्रतिशत और मणिपुर में 41़29 प्रतिशत हैं लेकिन केंद्र ने उन्हें कानून के मुताबिक वहां अल्पसंख्यक नहीं घोषित किया है इसलिए हिन्दुओं को संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 का संरक्षण नहीं प्राप्त है वे अपनी पसंद के शिक्षण संस्थान नहीं खोल और चला सकते हैं। कहा है कि केंद्र ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून की शक्तियों का मनमाना इस्तेमाल करते हुए मुसलमानों को अल्पसंख्यक घोषित किया है जबकि लक्षद्वीप में मुसलमान 96़58 फीसद, कश्मीर में 95 फीसद, और लद्दाख में 46 फीसद हैं।
इसी तरह ईसाई अल्पसंख्यक घोषित हैं जबकि नागालैंड में ईसाई 88़10 फीसद, मिजोरम में 87़16 फीसद और मेघालय में 74़59 फीसद हैं लेकिन ये अपनी शिक्षण संस्थाएं स्थापित कर चला सकते हैं। ऐसे ही पंजाब में सिख 57़69 फीसद हैं। लेकिन बहाई और यहूदी जो 0़1 फीसद और 0़2 फीसद हैं, अपनी शिक्षण संस्थाएं नहीं स्थापित कर सकते हैं। कहा गया है कि जहां नौ राज्यो में हिन्दू, बहाई और यहूदी अल्पसंख्यक हैं वहां उन्हें अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार मिलना चाहिए।