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रानीखेत के द्वारसों में तैयार हुआ देश का पहला घास संरक्षण केंद्र, 90 प्रजातियों को किया संरक्षित

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अल्मोड़ा । वन अनुसंधान केंद्र ने कुछ समय पहले रानीखेत के सौनी में प्रदेश का पहला हिमालयन स्पाइस गार्डन विकसित किया था। वनस्पतियों के संरक्षण में एक और कदम बढ़ाते हुए अनुसंधान केंद्र ने रानीखेत के ही द्वारसों में एक घास संरक्षण केंद्र भी स्थापित कर दिया है।
वन अनुसंधान केंद्र ने रानीखेत के द्वारसों में देश का पहला घास संरक्षण केंद्र स्थापित किया है। तीन एकड़ क्षेत्र में फैले इस केंद्र में घास की 90 प्रजातियों को संरक्षित किया गया है। र्केपा योजना के तहत तैयार अनुसंधान केंद्र ने तीन साल में छह लाख रुपये की लागत से घास संरक्षण केंद्र तैयार किया। इसमें उत्तराखंड के साथ ही अन्य प्रदेशों की घास को भी संरक्षित किया गया है।
वन अनुसंधान केंद्र ने कुछ समय पहले रानीखेत के सौनी में प्रदेश का पहला हिमालयन स्पाइस गार्डन विकसित किया था। वनस्पतियों के संरक्षण में एक और कदम बढ़ाते हुए अनुसंधान केंद्र ने रानीखेत के ही द्वारसों में एक घास संरक्षण केंद्र भी स्थापित कर दिया है। मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान) संजीव चतुर्वेदी के अनुसार यह देश का पहला घास संरक्षण केंद्र है। केंद्र के सात खंडों में खुशबूदार, औषधीय, सजावटी, धार्मिक मान्यताओं से जुड़े, पशुओं के चारे से संबंधित, अग्नि प्रतिरोधी और षि से संबंधित घास की 90 प्रजातियों को शामिल किया गया है। केंद्र में घास के वैज्ञानिक, पर्यावरणीय और सांस्तिक महत्व के बारे में भी जानकारी दी गई है। रविवार को केंद्र का शुभारंभ भी कर दिया गया है।
वन अनुसंधान केंद्र ने रानीखेत घास संरक्षण केंद्र में रोशा, खस, लेमन घास, जावा, राई, ब्रोम, गिन्नी, किकूई, दोलनी, बरसीम, स्मट, सिरू, कोगोना, दूब, कांसा, अस, फेयरी, आइसोलैप्स, जैबरा, कुश, दूब के साथ ही जौ, गेहूं, मंडुवा, मक्का, सरसों, धान, अस और बबीला को संरक्षित किया है।
घास संरक्षण केंद्र में घास की करीब 90 प्रतिशत प्रजातियां उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों की हैं। इसके साथ ही यहां राजस्थान की प्रसिद्घ जेवड़ घास भी है। यह घास जानवरों के लिए बेहद पौष्टिक होती है। इसके चलते राजस्थान में दूध बेहद पौष्टिक होता है। नेपाल की टाइगर घास भी यहां है जिससे फूल का झाडू तैयार होता है। नेपाल में महिलाओं की आजीविका का इसे बड़ा साधन माना गया है।
मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान) संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि घास ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में अधिक कारगर होती हैं। घास की जड़ें जमीन के अंदर होती हैं जिससे घास के मैदान कार्बन को शोषित करते हैं। घास के मैदानों में आग लगने के बाद भी यह कार्बन नहीं छोड़ती है। इस कारण यह पर्यावरण संरक्षण के लिए भी बेहद लाभदायक होती हैं।

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