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कुरुक्षेत्र: चेहरे बनाम सामूहिक नेतृत्व व महिला आरक्षण बनाम जातीय जनगणना की पहली परीक्षा विधानसभा चुनावों में

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नई दिल्ली, एजेंसी। लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई 2024 में होने हैं, लेकिन बिसात अभी से बिछ रही है। इसी साल नवंबर में होने वाले मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ राजस्थान तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा के चुनावों को लेकर भाजपा और कांग्रेस ने ऐसी तैयारी शुरु कर दी है। मानों ये चुनाव लोकसभा के चुनाव हों।मीडिया में भी वैसी ही हलचल है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़ है और दलों की रणनीति भी उसी हिसाब से लगातार बदल रही है।
आम तौर पर ज्यादातर चुनावों में एक बड़ा चेहरा उतार कर कांग्रेस से उसका चेहरा पूछने वाली भाजपा इस बार मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सामूहिक नेतृत्व के नारे के साथ चुनाव में उतरेगी, जबकि कांग्रेस तीनों राज्यों में कमलनाथ, अशोक गहलौत और भूपेश बघेल के मुकाबले में भाजपा से उसके चेहरों के नाम पूछेगी।
इसी बीच बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने राज्य की जातिवार जनगणना के आंकड़े जारी करके राजनीति को एक नया आयाम दे दिया है। बिहार सरकार के इस कदम से जातीय जनगणना कराने का दबाव केंद्र सरकार पर बढ़ गया है और विपक्ष ने इसे मुद्दा बनाना शुरु कर दिया है। नीतीश कुमार के साथ तेजस्वी यादव, राहुल गांधी अखिलेश यादव आदि अपने पिछड़े कार्ड के साथ मैदान में उतर आए हैं।
भाजपा अगर हिंदुत्व और महिला आरक्षण कानून को मुद्दा बना रही है तो विपक्ष जातीय जनगणना और पिछड़ों के आरक्षण के मुद्दे को हवा दे रहा है। विपक्ष के इस दांव के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे हिंदुओं को बांटने और जात पांत कि जगह गरीब को उसका हक देने का मुद्दा उठा दिया है। छत्तीसगढ़ की जन सभा में प्रधानमंत्री ने कहा कि अगर जिसकी जितनी आबादी उसको उतना ही हक की बात करनी है तो सबसे ज्यादा आबादी हिंदुओं की है तो सबसे ज्यादा हक उन्हें ही मिलना चाहिए। ऐसा करके क्या कांग्रेस अल्पसंख्यकों का हिस्सा खत्म करना चाहती है। अब कौन सा मुद्दा भारी पड़ेगा इसकी पहली परीक्षा नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में होगी।
कर्नाटक के उलट भाजपा ने आनन फानन में जिस तेजी के साथ मध्य प्रदेश में सत्तर से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवारों की तीन सूचियां जारी कर दीं और छत्तीसगढ़ में भी उसकी पहली सूची सामने आ गई है, जबकि कर्नाटक में भाजपा से काफी पहले आधे से ज्यादा उम्मीदवारों की पहली सूची जारी करने वाली कांग्रेस अभी सभी राज्यों में माथापच्ची कर रही है। भाजपा ने न सिर्फ जल्दी सूची जारी करके बल्कि अपनी दूसरी सूची में तीन केंद्रीय मंत्रियों, सात सांसदों और एक राष्ट्रीय महासचिव समेत आठ सीटों पर जिस तरह बड़े नेताओं को उतारकर सबको चौंका दिया है, उसे लेकर अलग अलग राय है।
एक राय है कि मध्य प्रदेश को लेकर भाजपा बहुत आश्वस्त नहीं है, इसलिए उसने उन सीटों पर जो उसकी सबसे कमजोर सीटें हैं। अपने दिग्गज उतारकर उनको जीतने की रणनीति बनाई है। दूसरी राय है कि भाजपा ने यह कदम घबराकर अपने बचाव में उतारा है कि इससे सामने वाले पर दबाव बनेगा लड़ाई में जो घबराता है उसका नुकसान होता है।
एक अन्य राय है कि ऐसा करके भाजपा ने मध्य प्रदेश की जनता को यह संदेश दिया है कि पार्टी इस बार वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे के बिना सामूहिक नेतृत्व में लड़ेगी और अगर सरकार बनी तो कोई अन्य मुख्यमंत्री हो सकता है। इसलिए मुख्यमंत्री पद के तीन बड़े दावेदार नरेंद्र सिंह तोमर, कैलास विजयवर्गीय और प्रहलाद पटेल को मैदान में उतारकर उनके क्षेत्र की जनता और समर्थकों को यह संदेश दिया है कि उनका नेता भी मुख्यमंत्री बन सकता है।
इनसे इतर एक राय यह भी है कि पार्टी नेतृत्व ने मुख्यमंत्री पद के दावेदारों को चुनाव मैदान में उतारकर उनकी हैसियत का इम्तिहान भी लिया है कि मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे आने के लिए उन्हें यह चुनावी अग्निपरीक्षा देनी होगी।
भाजपा की यह रणनीति कितनी कामयाब होगी इसे लेकर भी राय बंटी हुई है। कुछ विश्लेषक इसे भाजपा का मास्टर स्ट्रोक बताते हैं जबकि इसके उलट इसे डिसीस्टर स्ट्रोक भी कहा जा रहा है। रणनीति के समर्थकों का कहना है कि दिग्गजों को मैदान में उतारकर भाजपा ने सामूहिक नेतृत्व की बात को यर्थाथ में बदल दिया है। इससे शिवराज सिह को लेकर पिछले 18 साल की एंटी इन्कंबेंसी जो अरुचि में बदल गई है, उससे निपटने में मदद मिलेगी और साथ ही मध्य प्रदेश में भाजपा का नया नेतृत्व भी विकसित हो सकेगा। फिर शिवराज की जगह मोदी का चेहरा सामने रहने से पार्टी को चुनावी फायदे की उम्मीद ज्यादा है, लेकिन इस रणनीति को डिसास्टर स्ट्रोक बताने वाले कहते हैं कि इससे एक तरफ तो भाजपा की निराशा और हताशा सामने आ गई है दूसरी तरफ जो बड़े नेता घूम घूम कर पार्टी उम्मीदवारों की जीत का रास्ता आसान कर सकते थे, उन्हे खुद चुनाव में फंसा कर पार्टी ने अपना नुकसान कर लिया है।
दूसरे इन सीटों पर जहां दिग्गजों को उतारा गया है वहां जो स्थानीय नेता टिकट के दावेदार थे, उनके विरोध और असंतोष का सामना भी इन दिग्गजों को करना पड़ेगा। फिर शिवराज सिंह जिन्होंने 15 साल से ज्यादा वक्त तक राज्य पर शासन किया है, उन्होंने अपना एक निजी जनाधार वर्ग भी तैयार किया है।सामूहिक नेतृत्व के नाम पर शिवराज की अनदेखी इस समूह को नाराज कर सकती है जिसका भाजपा को नुकसान हो सकता है।
अब बात राजस्थान की जहां पिछले कई चुनावों से हर पांच साल में सरकार बदलने का रिवाज रहा है। भाजपा को इस रिवाज पर बेहद भरोसा है जबकि कांग्रेस दावा कर रही है कि इस बार राज नहीं रिवाज बदलेगा। हालांकि, दोनों ही दलों ने अभी तक राजस्थान के लिए कोई सूची जारी नहीं की है, लेकिन कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश की तरह यहां भी भाजपा अपने कुछ दिग्गजों को मैदान में उतार सकती है। इनमें जो नाम चल रहे हैं उनमें केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन मेघवाल, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला पूर्व केंद्रीय मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर और जयपुर राजघराने की दिया कुमारी आदि के नाम लिए जा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि यहां भी दिग्गजों को मैदान में उतार कर कांग्रेस को बचाव की मुद्रा में लाने की रणनीति है।लेकिन जैसे मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का पेंच फंसा है, वैसे ही यहां पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को लेकर भी भारी उहापोह है। शिवराज की ही तरह राजस्थान में भाजपा में वसुंधरा अकेली नेता हैं जिनकी पहचान और लोकप्रियता पूरे राजस्थान में है। कहा जाता है कि 40 से 50 सीटों पर वसुंधऱा का अपना निजी असर है और उनकी अनदेखी व नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है। इसके बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने मध्य प्रदेश की ही तर्ज पर यहां भी सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है। यह दुधारी तलवार है जो दोनों तरफ मार कर सकती है। यहां भी भाजपा मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ेगी।
उधर कांग्रेस जो पिछले कई महीनों से मुख्यमंत्री अशोक गहलौत और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट की जंग से जूझ रही थी अब फौरी तौर पर उस पर काबू पा चुकी है। चुनाव पूरी तरह अशोक गहलौत के चेहरे और नेतृत्व पर ही लड़ा जाएगा। पिछले करीब एक साल से गहलौत सरकार की लोकलुभावन योजनाओं का जमीन पड़ने वाले असर को कांग्रेस अपनी ताकत मान रही है और इसी आधार पर राज्य में अपनी सरकार की वापसी का दावा भी कर रही है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी बता रहे हैं कि तीन महीने पहले कांग्रेस भाजपा से खासी पीछे थी, अब लगभग मुकाबले पर आ गई है और भाजपा उससे थोड़ा ही आगे है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस भूपेश बघेल के नेतृत्व में पूरी तरह अपनी सरकार दोबारा बनाने के लिए आश्वस्त है। भाजपा नेता भी दबी जुबान से स्वीकारते हैं कि राज्य में उनकी सीटें तो बढ़ेंगी लेकिन कोई स्थानीय नेतृत्व न होने के कारण बघेल को चुनौती नहीं दी जा पा रही है और इसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा।
सबसे ज्यादा चौंकाने वाली खबरें दक्षिणी राज्य तेलंगाना से आ रही हैं। यहां मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली टीआरएस जो अब बीआरएस हो गई है, उसे सबसे कड़ी चुनौती कांग्रेस से मिल रही है। जबकि 2019 के लोकसभा चुनावों और विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी, लेकिन कर्नाटक चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद तेलंगाना का माहौल बदल गया है। वहां राज्य की बीआरएस सरकार के खिलाफ जो रुझान है वो भाजपा की बजाय कांग्रेस की तरफ मुड़ता जा रहा है।
इसका सबसे बड़ा कारण कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद अल्पसंख्यक मतदाता जो टीआरएस का ब़ड़ा जनाधार थे, कांग्रेस की तरफ एकमुश्त आ रहे हैं, क्योंकि दिल्ली शराब घोटाले को लेकर जब से प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव की बेटी और सांसद कविता से पूछताछ की है। चंद्रशेखर राव ने खुद को विपक्षी खेमेबंदी से दूर कर लिया और केंद्र सरकार व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ बोलना भी लगभग बंद कर दिया।
इससे राज्य में बीआरएस और भाजपा के बीच अंदरूनी दोस्ती का संदेश तेजी से गया है और बीआरएस विरोधी मतदाता भाजपा से दूर होने लगे हैं। भाजपा ने अपने मुखर प्रदेश अध्यक्ष बंडी को बदलकर भी इस संदेह को बल दिया है। साथ ही कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी ने लगातार राज्य में दौरे और यात्राओं के जरिए पार्टी को फिर से खड़ा कर दिया है। इसीलिए तेलंगाना में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी की जनसभाओं में उमड़ी जबर्दस्त भीड़ ने भी कांग्रेस का हौसला बढ़ा दिया है।
लगातार बीआरएस और भाजपा छोड़कर जिस तरह स्थानीय नेता कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं उससे भी कांग्रेस उत्साहित है। शायद इसीलिए राहुल गांधी ने हाल ही में कहा कि मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में कांग्रेस निश्चित रूप से सरकार बना रही है, जबकि राजस्थान में कड़ा मुकाबला है, लेकिन वहां भी हमें सरकार बनने की उम्मीद है और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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