उत्तराखण्ड में कुली बेगार प्रथा के खात्मे के सौ साल, जानिए अमानवीय इतिहास
डॉ. प्रवीन जोशी
उत्तराखंड के इतिहास में एक घृणित व्यवस्था ‘कुली बेगार प्रथा’ की समाप्ति के सौ वर्ष पूर्ण होने पर उन नायकों को याद करने एवं श्रद्दांजलि देने का समय है, जिनके प्रयासों से इस कुप्रथा का अंत हुआ था। इससे पूर्व वर्तमान पीढ़ी को कुली बेगार प्रथा से अवगत होना आवश्यक है तथा यह भी जानना आवश्यक है कि हमारे पूर्वजो ने हमें स्वतन्त्र भारत में जीने के लिए किन-किन प्रताणाओं का सामना किया। किसी व्यक्ति से बिना पारिश्रमिक दिये कुली का काम कराने को “कुली बेगार” कहा जाता था। यद्दपि इस प्रथा की शुरुवात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं तथापि कुमाऊँ में 14वीं शताब्दी में चन्द शासकों द्वारा राज्य में घोड़ों से सम्बन्धित एक कर ‘घोडालों’ को कुली बेगार प्रथा का एक प्रारंभिक रूप माना जा सकता है। आगे चल कर गोरखाओं के शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया और अंग्रेजों ने इसे दमकारी रूप तक पहुंचाया। वास्तव में पहले यह ‘कर’ उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे। अत: यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे, परन्तु भू-स्वामियों या जमीदारों ने अपने हिस्से का ‘कुली बेगार’ भूमिहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया था जिन्हें इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार करना पड़ा। इस व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न ग्रामों के प्रधान एक निश्चित अवधि के लिये निश्चित संख्या में कुली, शासक वर्ग को उपलब्ध कराते थे। इस कार्य हेतु गाँव का प्रधान रजिस्टर में अंकित सभी ग्राम वासियों को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य करता था। दु:खद पहलु यह था कि ग्रामीणों के ही बीच से बने प्रधान, जमीदार और पटवारियों की मिलीभगत ने अपने व्यक्तिगत हितों को साधने के लिये इस कुरीति को बढ़ावा दिया। जिससे जनता के बीच असंतोष बढ़ता गया। कभी-कभी तो लोगों को अंग्रेजों की कमोड या गन्दे कपड़े आदि धोने एवं ढोने का अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था। अंग्रेजो द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से शोषण के विरोध में लोग परस्पर एकजुट होने लगे थे हालांकि यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही। 1913 में कुली बेगार उत्तराखंड के निवासियों के लिये अनिवार्य कर देने के बाद इसका हर जगह पर विरोध हुआ इन आंदोलनो की अगुवाई कुमाऊ परिषद् के मुख्य स्तम्भ बद्री दत्त पाण्डे ने की थी। कुमाऊँ परिषद का महत्वपूर्ण कार्य कुली बेगार प्रथा के उन्मूलन के लिए आंदोलन करना था। इस समय बेगार का विरोध करने वालों के दो वर्ग थे। तारादत्त गैरोला आदि लोगों का एक वर्ग संशोधनों से संतुष्ट होकर धीरे-धीरे बेगार उठाने का पक्षघर था और कुली एजेंसी जैसे अस्थायी समाधान को स्वीकार करता था, जबकि परंतु बदरीदत्त पाण्डे, हर्षदेव ओली, हरगोविन्द पन्त, मुकुन्दीलाल आदि का दूसरा वर्ग बेगार का पूर्ण अंत चाहता था। ब्रिटिश शासन में कुली उतार, बेगार और बर्दायश की प्रथा अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। सोमेश्वर प्रतिरोध से 1903 में खत्याड़ी के ग्रामीणों की सफलता तक इसमें विभिन्न लोगो ने योगदान दिया।
1920 में काशीपुर में हरगोविन्द पंत की अध्यक्षता में कुमाऊँ परिषद के चौथे अधिवेशन में बेगार प्रथा को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा गया। 1 जनवरी 1921 को कत्यूर के चामी गाँव के हरू मंदिर में 400 लोगों के एक साथ बेगार न देने की शपथ लेने के साथ ही बेगार विरोधी पहली बड़ी घटना समाने आई। 10 जनवरी 1921 को चिरंजी लाल, हरगोविन्द पंत, बदरीदत्त पांडे, चेतराम सुनार आदि कार्यकर्ता बागेश्वर पहुंचे और 12 जनवरी की दोपहर ‘भारत माता की जय तथा ‘कुलीबेगार- उतार बन्द करो’ के नारों के साथ एक विशाल जुलूस निकाला गया। 15 जनवरी मकर सक्रान्ति के अवसर पर बागेश्वर के उत्तरायणी मेले मे ग्रामवासियों ने कुली बेगार के खिलाफ प्रतिज्ञा की। इसी दिन सिलोर महादेव (गढ़वाल) में ईश्वरीदत्त ध्यानी के प्रयत्न से भी एक बड़ी सभा हुई और उतार न देने का निर्णय लिया गया यहाँ संक्रान्ति पर पुन: सभा हुई और आगे की रणनीति पर विचार किया गया। गढ़वाल में मुकुन्दीलाल, अनसूया प्रसाद बहुगुणा, केशर सिह, भोलादत्त चमोला, भैरवदत्त धुलिया, भोलादत्त डबराल आदि ने भी विभिन्न स्थानों पर इस कुप्रथा के विरोध में आन्दोलन किया। बागेश्वर आन्दोलन के व्यापक रूप धारण कर लेने के बाद ग्राम प्रधानों, थोकदारों तथा मालगुजारों ने सरयू में कुली बेगार के रजिस्टर बहा दिये। इस प्रकार जनता के वर्षो के विरोध एवं आक्रोश का अंत, कुली बेगार जैसी घृणित प्रथा की समाप्ति से हुआ महात्मा गाँधी ने भी इस आन्दोलन प्रभावित होकर इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया था। इस सफल आन्दोलन के बाद बदरीदत्त पाण्डे को ‘कुमाऊँ केसरी’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
लेखक राजकीय स्नात्कोत्तर महाविद्यालय कोटद्वार के इतिहास विभाग के प्रभारी हैं