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अयोध्या पहुंची शालिग्राम शिला का क्या है धार्मिक महत्व, क्यों इन्हें नेपाल से ही लाया गया?

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नई दिल्ली, एजेंसी। अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के निर्माणाधीन मंदिर में स्थापित होने वाली दो शालिग्राम शिलाएं अयोध्या आ गई है। भगवान विष्णु का स्वरूप मानी जाने वाली इन शिलाओं का रामनगरी में भव्य अभिनंदन किया गया। कहा जाता है कि ये शिलाएं करीब छह करोड़ साल पुरानी हैं। दोनों शिलाएं 40 टन की हैं। एक शिला का वजन 26 टन जबकि दूसरे का 14 टन है।
नेपाल की पवित्र काली गंडकी नदी से ये पत्थर निकाले गए हैं। वहां अभिषेक और विधि-विधान से पूजा-अर्चना के बाद शिला को 26 जनवरी को सड़क मार्ग से अयोध्या के लिए रवाना किया गया। बिहार के रास्ते यूपी के कुशीनगर और गोरखपुर होते हुए बुधवार को ये शिलाएं अयोध्या पहुंचीं। शिलायात्रा जहां-जहां से गुजरी उसका भव्य स्वागत हुआ। जानकारी के मुताबिक, शालिग्राम शिलाओं को रामसेवकपुरम स्थित कार्यशाला में रखा जाएगा।
छह करोड़ वर्ष पुराने दो शालीग्राम पत्थरों को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि में रखा जाएगा। इन शिलाओं का इस्तेमाल यहां निर्माण हो रहे श्री राम मंदिर में भगवान श्री राम के बाल्य स्वरूप की मूर्ति और माता सीता की मूर्ति बनाने के लिए किया जाएगा।
वैज्ञानिक शोध के अनुसार, शालिग्राम एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है। धार्मिक आधार पर शालिग्राम का प्रयोग भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है। शालिग्राम शिला नेपाल की पवित्र नदी गंडकी के तट पर मिलती है। यह वैष्णवों द्वारा पूजी जाने वाली सबसे पवित्र शिला है इसका उपयोग भगवान विष्णु को एक अमूर्त रूप में पूजा करने के लिए किया जाता है।
शालिग्राम की पूजा भगवान शिव के अमूर्त प्रतीक के रूप में श्लिंगमश् की पूजा के बराबर मानी जाती है। आज शालिग्राम विलुप्त होने के कगार पर हैं। ये शिलाएं अब गंडकी नदी से विलुप्त प्राय हैं, केवल दामोदर कुंड में कुछ शालिग्राम पाए जाते हैं, जो गंडकी नदी से 173 किमी की दूरी पर है।
गौतमीय तंत्र के अनुसार, काली-गंडकी नदी के पास शालाग्राम नामक एक बड़ा स्थान है। उस जगह पर जो पत्थर दिखते हैं, उन्हें शालाग्राम शिला कहा जाता है। हिंदू परंपरा के अनुसार वज्र-कीट नामक एक छोटा कीट इन्हीं शिलाओं में रहता है। कीट का एक हीरे का दांत होता है जो शालिग्राम पत्थर को काटता है और उसके अंदर रहता है।
शालिग्राम पर निशान इसे एक विशेष महत्व देते हैं, जो अक्सर भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र की तरह दिखाई देते हैं। शालिग्राम अलग-अलग रंगों में मिलते हैं, जैसे लाल, नीला, पीला, काला, हरा। सभी वर्ण बहुत पवित्र माने जाते हैं। पीले और स्वर्ण रंग के शालिग्राम को सबसे शुभ माना जाता है। कहा जाता है कि यह भक्त को अपार धन और समृद्घि प्रदान करता है। शालिग्राम के कई रुप होते हैं, कुछ अंडाकार तो कुछ में टेद होता है और अन्य में शंख, चक्र, गदा या पद्म आदि के निशान भी बने होते हैं। शालिग्राम अक्सर भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों जैसे नरसिंह अवतार, कूर्म अवतार आदि से जुड़े होते हैं।
वैष्णवों के अनुसार शालिग्राम भगवान विष्णु का निवास स्थान है और जो कोई भी इसे रखता है, उसे प्रतिदिन इसकी पूजा करनी चाहिए। उसे कठोर नियमों का भी पालन करना चाहिए जैसे बिना स्नान किए शालिग्राम को न टूना, शालिग्राम को कभी भी जमीन पर न रखना, गैर-सात्विक भोजन से परहेज करना और बुरी प्रथाओं में लिप्त न होना।
स्वयं भगवान ष्ण ने महाभारत में युधिष्ठर को शालिग्राम के गुण बताए हैं। मंदिर अपने अनुष्ठानों में किसी भी प्रकार के शालिग्राम का उपयोग कर सकते हैं। जिस स्थान पर शालिग्राम पत्थर पाया जाता है वह स्वयं उस नाम से जाना जाता है और भारत के बाहर श्वैष्णवोंश् के लिए 108 पवित्र तीर्थ स्थानों में से एक है।
देवउठनी एकादशी के दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी के विवाह की परंपरा है। एक कथा के अनुसार तुलसी ने भगवान विष्णु को पत्थर बनने का श्राप दिया था इसलिए भगवान विष्णु को शालिग्राम बनना पड़ा और इस रूप में उन्होंने माता तुलसी जोकि लक्ष्मी का ही रुप मानी जाती है उनसे विवाह किया। शालिग्राम और भगवती स्वरूपा तुलसी का विवाह करने से सारे अभाव, कलह, पाप, दुख और रोग दूर हो जाते हैं।
मान्यतओं के मुताबिक, जिस घर में शालिग्राम की रोज पूजा होती है वहां सभी दोष दूर होते हैं और नकारात्मकता नहीं रहती है। इसके अलावा इस घर में विष्णुजी और महालक्ष्मी निवास करती हैं। शालिग्राम को स्वयंभू माना जाता है इसलिए कोई भी व्यक्ति इन्हें घर या मंदिर में स्थापित करके पूजा कर सकता है। शालिग्राम को अर्पित किया हुआ पंचामृत प्रसाद के रूप में लेने से मनुष्य को सभी पापों से मुक्ति मिलती है। पूजा में शालिग्राम पर चढ़ाया हुआ जल भक्त यदि अपने ऊपर छिड़कता है तो उसे सभी तीर्थों में स्नान के समान पुण्य फल की प्राप्ति होता है।

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