श्रीलंका में लगातार खराब हो रहे हालात, आंख मूंद कर राजपक्षे सरकार को आर्थिक मदद नहीं देगा भारत
नई दिल्ली, एजेंसी। पड़ोसी देश श्रीलंका की आंतरिक स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है और समस्या का अभी तक कोई राजनीतिक समाधान निकलने की सूरत नहीं बन रही है। ऐसे में भारत ने कहा है कि वह श्रीलंका में लोकतंत्र, रिकवरी और आर्थिक मदद देने का समर्थन करता है, लेकिन सरकार के भीतर यह बात भी साफ है कि मौजूदा हालात में वह पड़ोसी देश को अपने वैश्विक स्तर पर डिफाल्ट घोषित होने से बचाने की स्थिति में नहीं है।
जनवरी, 2022 के बाद अभी तक श्रीलंका को 3़5 अरब डालर की मदद दे चुका है और आगे भी कुछ आर्थिक मदद देने को तैयार है। लेकिन पड़ोसी देश की जरूरत इतनी ज्यादा है कि उसे आर्थिक तौर पर दिवालिया होने से बचाने के लिए सिर्फ भारत की मदद से काम नहीं चलने वाला है। जुलाई, 2022 तक श्रीलंका को सिर्फ ब्याज अदाएगी के लिए दो अरब डालर की दरकार है, जबकि देश के पास अभी बमुश्किल 50 लाख डलर का विदेशी मुद्रा भंडार है।
ऐसे में इस बात की संभावना मजबूत है कि दो महीने बाद श्रीलंका को कर्ज देने वाली एजेंसियां डिफाल्ट घोषित कर दे। विदेश मंत्रालय की तरफ से बताया गया है कि, भारत अपने पड़ोसी देश और ऐतिहासिक संबंधों वाले देश श्रीलंका में लोकतंत्र, स्थायित्व व इकोनोमिक रिकवरी का स्वागत करता है। पड़ोसी सर्वप्रथम की अपनी नीति के तहत भारत ने इस वर्ष श्रीलंका को 3़5 अरब डालर की मदद दी है, ताकि वह अपनी पेरशानियों से पार पा सके। इसके अलावा भारत की जनता ने श्रीलंका को दवाइयों व अनाजों की भी मदद भेजी है। भारत हमेशा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत श्रीलंका के लोगों के हितों के लिए काम करता रहेगा।
देखा जाए तो राजपक्षे सरकार के साथ बहुत बढिघ्या रिश्ता नहीं होने के बावजूद जैसे ही श्रीलंका में आर्थिक परेशानी का दौर शुरू हुआ, भारत की तरफ से मदद बढ़ा दी गई। सबसे पहले सार्क फ्रेमवर्क व्यवस्था के जरिए भारत ने 40 करोड़ डालर की मदद दी, उसके बाद एशियन क्लीयरिंग यूनिट के तहत आरबीआइ ने 1़5 अरब डालर की मदद पहुंचाई। फिर ईंधन खरीद के लिए 50 करोड़ डलर की व्यवस्था और की गई। इसके बाद दवा, अनाज जैसी जरूरी चीजों की खरीद के लिए एक अरब डालर की राशि फिर भारत ने दी है। इस दौरान 760 किलोग्राम दवाइयां भी भारत पहुंचा चुका है। सूत्रों का कहना है कि पड़ोसी देश की स्थिति राजनीतिक तौर पर बेहद अस्थिर है। सरकार का आर्थिक खजाना तकरीबन खाली है। आवश्यक चीजों के आयात के लिए भी उनके विदेशी मुद्रा भंडार में राशि नही हैं। श्रीलंका की बात आइएमएफ व विश्व बैंक से हो रही है, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता की वजह से इस काम में भी बाधा उत्पन्न हो रही है। भारत भी आगे मदद देने को तैयार है, लेकिन यहां भी अस्थिरता रोड़े अटका रही है।
अस्थिरता का आभास पहले से भारत को था इसलिए वह छोटे-छोटे टुकड़ों में मदद दे रहा है और आगे भी यही रणनीति रहेगी। भारत की भी मदद देने की सीमा है। ऐसे में बड़ी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की भारी-भरकम मदद ही श्रीलंका को डिफाल्ट होने से बचा सकती है।
आने वाले दिनों में भारत श्रीलंका को कितनी मदद देगा, यह वहां के राजनीतिक हालात पर भी निर्भर करेगा। पड़ोसी देश को बढ़- चढ़ कर वित्तीय मदद देने की राह में भारत की हिचकिचाहट के पीटे राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे का अभी तक का रवैया भी एक कारण है। गोताबाया की राजनीति शुरू से ही चीन के समर्थन की रही है।
पिछले वर्ष जब उनके देश की इकोनोमी की स्थिति खराब होने लगी तो चीन से मनमाफिक समर्थन नहीं मिलने के बाद ही राजपक्षे सरकार का रवैया भारत को लेकर थोड़ा बदला। नतीजा यह हुआ कि भारत से आर्थिक मदद भी मिली और भारत की कंपनियों के लटकी हुई परियोजनाओं को हरी झंडी भी दिखाई गई। विश्व बैंक के डाटा के मुताबिक वर्ष 2020 तक पड़ोसी देश पर कुल 56 अरब डलर का कर्ज है जिसमें 10 फीसद हिस्सा चीन का है। इस कर्ज में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ दो फीसद है।