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खत्म हो रही हैं धर्मों और जातियों की दूरियां, अब समान नागरिक संहिता की जरूरत: दिल्ली हाई कोर्ट

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नई दिल्ली, एजेंसी। विभिन्न मंचों पर वर्षों से उठ रही समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लाने की मांग की वकालत करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस संबंध में जरूरी कदम उठाने को कहा है। तलाक की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति प्रतिबा एम़ सिंह की पीठ ने अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि भारतीय समाज समरूप हो रहा है, धर्मों के बीच की पारंपरिक दूरियां धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं। यूसीसी का समर्थन करते हुए पीठ ने कहा कि विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों से संबंधित भारत के युवाओं को विवाह और तलाक के संबंध में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में टकराव के कारण पैदा होने वाले मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर होने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। उक्त टिप्प्णी करते हुए पीठ ने निर्देश दिया कि आदेश की एक प्रति केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय के सचिव को आवश्यक कार्रवाई के लिए भेजी जाए।
याचिकाकर्ता सतप्रकाश मीना ने अलका मीना से 24 जून 2012 में हिंदू रीति-रिवजों के अनुसार शादी की थी। याचिकाकर्ता ने पत्नी से तलाक लेने के लिए पारिवारिक न्यायालय अधिनियम के तहत तलाक की मांग को लेकर याचिका दायर की थी। वहीं, पत्नी ने तलाक की याचिका को खारिज करने के लिए आवेदन दायर करते कर दलील दी कि उनपर हिंदू विवाह अधिनियम के प्रविधान लागू नहीं होते, क्योंकि वे राजस्थान के एक अधिसूचित जनजाति मीणा के सदस्य हैं।
हालांकि, पीठ ने याचिका को स्वीकार करते हुए पत्नी की दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि सभी के लिए समान संहिता की जरूरत है, जो विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि जैसे पहलुओं के संबंध में समान सिद्घांतों को लागू करने में सक्षम हो। पीठ ने कहा कि दस्तावेजों से साफ है कि दोनों पक्षों की शादी हिंदू रीति-रिवाजों से हुई थी और वे इसका पालन करते हैं।
पीठ ने कहा कि हालांकि हिंदू की कोई परिभाषा नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अगर जनजातियों के सदस्यों का हिंदूकरण किया जाता है तो उनपर हिंदू विवाह अधिनियम लागू होगा। इतना ही नहीं, अदालत के समक्ष ऐसा कोई साक्ष्य नहीं रखा गया, जो दर्शाता हो कि मीणा समुदाय के पास इन मुद्दों से निपटने के लिए उचित प्रक्रियाओं के साथ एक विशेष न्यायालय है। पीठ ने निचली अदालत के आदेश को निरस्त करते हुए हिंदू विवाह अधिनियम-1955 के 13-1 (ए) के तहत योग्यता के आधार पर छह सप्ताह के मामले में फैसला देने को कहा।
वर्ष 1985 के ऐतिहासिक शाहबानो सहित सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों को जिक्र करते हुए पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत ने भी समय-समय पर अनुच्छेद-44 के तहत परिकल्पित यूसीसी की जरूरत को दोहराया है। ऐसे में संविधान के अनुच्छेद-44 में राज्य द्वारा अपने नागरिकों के लिए यूसीसी की सुरक्षा का प्रविधान सिर्फ एक उम्मीद बनकर नहीं रहना चाहिए। पीठ ने निराशा जताई कि तीन दशक बाद भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया है।
शाहबानो मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि एक समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य की पूर्ति करने में मदद करेगी। यह भी देखा गया था कि राज्य पर देश के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुरक्षित रखने का कर्तव्य है।

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