हिमवन्त प्रदेश उत्तराखंड को पलायन की मार से बचाएं

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मनवर लाल भारती
प्रधानाचार्य
इंटर कॉलेज पोखरी अजमीर, पौड़ी गढ़वाल।
पाली भाषा की जातक कथाओं में वर्णित हिमवंत प्रदेश जो वर्तमान में उत्तराखण्ड प्रदेश के नाम से अपनी प्राकृतिक सुंदरता लिए सम्पूर्ण विश्व के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है, यह हम सब के गर्व की बात है। यहां पर आने वाले हर पर्यटक यहां की जनश्रुतियों में अद्भुत आध्यात्मिक ज्ञान को देखते हुए यथा अनुकूल नियमों का पालन करते हुए इस धरती पर मन की शांति प्राप्त करना चाहते है,ं क्योंकि मनुष्य के मन का स्वभाव अन्य प्राणी से बिल्कुल भिन्न होता है। यह स्वभाव मनुष्य के मन की चंचलता का रूप है और अधिकांश मनुष्य मन की इस चंचलता से मुक्त होना चाहते हैं, इसी कारण वह शांत वादियों की तलाश में उत्तराखण्ड के उच्च हिमालयी क्षेत्र की ओर अपने कदम रखकर यहां की आवोहवा में साक्षात् स्वर्ग के दर्शन कर बैठते हैं और संभवत: फिर हर किसी का मन तब इसे स्वर्गलोग स्वीकार कर यहीं पर ईश्वर से मोक्ष प्राप्ति की तपस्या में लीन हो जाया करते हैं, परन्तु आज हिमवन्त प्रदेश का जो रूप अध्यात्म ज्ञान को छोड़ कर खेत खलियानों, सुन्दर चौक तिवारियों के पठालेदार मकानों और पशुधन से परिपूर्ण गोठार (जानवरों के रहने के स्थान हुआ करते थे) जो यहां की परम्परागत शैली से युक्त सभ्यता और संस्कृति हुआ करती थी, आज वह अपनी अंतिम सांस जैसा गिन रही हैं। अचानक ऐसा क्यों हुआ इसका दोषी भी हमारा उत्तराखण्डी जनमानस ही है। वर्तमान में हमारा एक दूसरे पर दोष मढ़ना सबसे बड़ी नादानी कहीं जा सकती है। हैरतंगेज बात यह है कि हमने अपने देवत्व गुणी स्वर्ग वाली धरती को नजर अंदाज करते हुए अपना परिश्रमी जीवन त्याग दिया है और एक ऐसी निगोड़ी शहरी जीवन को पसंद कर दिया है जहां कोई कभी भी एक-दूसरे का हो ही नहीं सकता है।
हम जिस उत्तराखण्ड की धरती को पुराणों में केदार खण्ड और मानस खण्ड के संयुक्त नाम से उत्तराखण्ड के नाम को जानते हैं वह प्राचीन काल में हिमवंत प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध था, संभवत: बौद्ध काल में यह धरती इस नाम से जानी जाती थी। इस काल में पाली भाषा जो आम बोलचाल की भाषा हुआ करती थी यही जातक कथाओं के साहित्य की भाषा थी उस समय सम्पूर्ण जातक कथाएं जो जीव जन्तुओं पर आधारित प्राकृतिक सौन्दर्य वर्णन से जुड़ी हुई हुआ करती थी यही रोचक गाथाओं और कथाओं को जन्म देती थी पर आज उस सभ्यता और संस्कृति के विषय में कोई पढ़ना नहीं चाहते हैं, जबकि हमें ज्ञात होना चाहिए की उत्तराखण्ड की धरती अनेकों प्राकृतिक वनस्पतियों तथा अनेकों वन्य जीवों की जन्मस्थली और शरण स्थली रही है। यहां का हर जीव अपने में देवताओं जैसा रूप सौंदर्य लिए हुए है जो इन्हें अन्य प्रान्तों के भूखंडों से पृथक कर देता है। उत्तराखंड की सुंदर नदी घाटियों का अद्भुत नजारा देखने का सौभाग्य आज के 50 से 60 वर्ष की उम्र वाले उन लोगों को मिला होगा जिनका जीवन घुम्मकड़ी प्रवृत्ति का रहा होगा या खास धार्मिक यात्रा के उद्देश्यों के मकसद से इन नदी घाटियों में उनका आना-जाना रहा होगा या वे लोग जो तिब्बत भू-भाग से नमक और अन्य आवश्यक खाद्य सामग्री के व्यापार के लिए यहां के हिमालयी प्रसिद्ध दर्रों से तिब्बत की यात्रा पर जाते रहे होंगे। जिनमें खास भोटिया जनजाति जो ग्रीष्म ऋतु में अपनी भेड़ बकरियों के या अन्य पशुओं के चुगान हेतु उच्च हिमालयी क्षेत्र से तिब्बत में अच्छा खासा व्यापार प्राय: इन सुंदर घाटियों से करते थे और इन सुन्दर घाटियों की गाथाओं का आंखों देखा रोचक वर्णन किया करते थे, परन्तु वर्तमान में आवागमन की सुविधा और इंटरनेट डिजिटल सोशल मीडिया की सुविधा ने अब इन सुंदर घाटियों का जो दीदार करवाया है उसे देख करके आज ऐसा लगता है कि दुनिया में कहीं कोई स्वर्ग है तो वह उत्तराखण्ड की धरती पर है और कश्मीर की धरा की तरह अत्यंत वनाच्छादित एवं हिमाच्छादित सौन्दर्य से परिपूर्ण है, परंतु वर्तमान में यह धरती अब केवल शहरी जनों के सैर सपाटा मौज मस्ती से कितनी शोषित हो चुकी है कि जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।
हिमालयी क्षेत्र का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार एड.विन.टी. एटकिंसन साहब अपनी पुस्तक हिमालयन गजेटियर ग्रंथ दो के भाग दो में लिखते हैं कि धर्म का इतिहास और आस्थाओं का पवित्र दर्शन उत्तराखण्ड की धरती पर ही मिलता है। भारत के विभिन्न प्रान्तों से आने वाले बहुत से लोगों के लिए सभी अलौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति और सर्वोच्च सुख उत्तराखंड की तीर्थ यात्रा में मिलता है, क्योंकि यह माना जाता है कि यहां की यात्रा से पिछले जन्मों के सभी पाप धुल जाते हैं। यहां पर हर पाषाण (विशाल पत्थर) और नदियां किसी न किसी देवता या कृषि को समर्पित हैं और हर एक से कोई न कोई गाथा जुड़ी हुई है। यहां की वियाबान और एकदम बीहड़ प्रकृति को देखकर यह सही लगता है कि यह महान देवता महादेव का आवास है और जब यहां पर्वतों के बीच घाटियों से जिनसे होकर यहां के प्रमुख मठ मंदिरों तक पहुंचा जाता है तो एक थका हारा मैदानी क्षेत्र का यात्री इन दुर्गम मार्गों से जब आगे बढ़ता है तो उससे यह कहा जाता है कि श्रद्धा के साथ चुपचाप चलते रहें, वरना देवता नाराज हो जाएंगे ऐसे में यात्री को सचमुच में देवता के होने का एहसास होने लगता है। यहां आवाज, गीत या संगीत का स्वर अगर होता है तो देवता ऊपर से हिमखंड नीचे को आवाज करने वाले पर लुड़ने शुरू हो जाते हैं तो भयभीत यात्री को लगता है कि उसे देवता के साक्षात दर्शन हो गए हैं देवता जो भयावह रूप है और खंडित करने में देरी नहीं करता है। यही यहां की कठोर तपस्या स्वरूप है।

जागर गाथाओं में स्वर्गलोक के समरूप ही नागलोक
पौराणिक धर्म ग्रन्थों से इतर, जब हम पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही जनश्रुतियों में या जागर गाथाओं में यहां के वीर भड़ों और यहां के स्वर्ग की महिमा का वर्णन सुनते हैं जो जागर गाथाओं में स्वर्गलोक के समरूप ही नागलोक है तो हमारी कल्पना का आकार इतना सुंदर और पुण्य हो जाता है कि हम फिर सब कुछ भूल कर उन जागर गाथाओं की दुनिया में इतना खो जाते हैं, तब लगता कि सचमुच में हम अलग दुनिया में विचरण कर रहे होते हैं और यही हम उत्तराखण्ड वासियों का सही अर्थों में वास्तविक धर्म रहा है जो विभिन्न कृषि तीज त्यौहार पर आधारित है और इन्हीं जागर गाथाओं के अनुसार हम अपने देवी-देवताओं को मानते भी आए हैं परन्तु आज पलायन ने हम उत्तराखण्डियों की आत्मा से यह सबकुछ गायब कर दिया है क्योंकि नई पीढ़ी एक नई अजनबी दुनिया का ख्वाब देखने में मस्त है जिसे यहां के धरातलीय ज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। उसके सामने रेडीमेड खाना पीना और डिजिटल सोशल मीडिया की नेटवर्किंग दुनिया सब कुछ दे रहा है उसने इस दुनिया को ही सच्ची दुनिया मान लिया है जबकि संघर्षमय जीवन के लिए यह एक अभिशाप है और इस अभिशाप को कोई नहीं देख रहा है इसे समझाने की बात तो अब टेढ़ी खीर है।

आज उत्तराखण्ड की सौम्यता की कोई झलक नजर नहीं आती
हमारे हिमवंत प्रदेश का प्राकृतिक सौंदर्य और यहां की आवोहवा में जो सुकून के साथ जीने की आस रही है उसी ने यहां के रह वासियों को उनकी शारीरिक संरचना उनका रहन-सहन, खान पान और वेशभूषा से उन्हें हमेशा से एक अलग पहचान दी है यहां का जीवन बड़ा कष्टकारी रहा है, परन्तु इसे यहां के लोगों ने जीवन को कष्टकारी न मान कर इसे भी अपना धर्म माना है परन्तु अचानक हिमवन्त प्रदेश की इस धरती के जनमानस में एक अलग प्रकार की दिखावटी कहूं या बनावटी कहूं कि अपनी धरा के प्रति वह इतना बदल चुका है कि उसमें आज उत्तराखण्ड की सौम्यता की कोई झलक नजर नहीं आती है। बस कभी कभार अपने गांव जा कर बचपन की याद ताजा कर के फिर नरक लोक की सैर पर चला जाता है जहां कोई अपना नहीं है।

हर कोई शहरी जीवन की मृगतृष्णा में लिप्त हो चुका
पाली भाषा का वर्णित हिमवन्त प्रदेश का भविष्य अब कैसा होगा यह सोचना तो बड़ी जटिल समस्या है पर यहां के रहवासी कभी अपने घर की ओर भी लौटेंगे फिलहाल प्रचंड पलायन की स्थिति है दर्शाती है कि कोई भी उत्तराखंड की धरती पर अपना कृषि कार्य और पशुधन के संघर्षपूर्ण जीवन को जीना नहीं चाहते हैं। बस हर कोई शहरी जीवन की मृगतृष्णा में लिप्त हो चुका है। आप किसी को भी गांव की ओर लौटा नहीं सकते हो , भले ही सोशल मीडिया या अन्य तौर तरीकों से और कितने ही सुंदर लुभावने संदेश वाले विडियो शेयर कर दो पर इन शहरी परम्पराओं मौज मस्ती वाली सभ्यता अब अपनी दस्तक गांव तक दे चुकी है। अत: हम बुद्धि जीवी लोगों का कर्तव्य है कि हमें हिमवन्त प्रदेश की लाज बचाने की कसम खानी होगी अन्यथा ये शहरों के डायन हमें निगल देंगे।

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