उत्तराखंड में कोरोना के एक साल, कुछ चुनौतियां निपटी कुछ बरकरार
देहरादून। कोरोना के कारण साल 2020 बुरी तरह प्रभावित रहा है। उत्तराखंड भी इस संकट से अटूता नहीं रहा। प्रदेश में कोरोना की दस्तक हुए एक साल बीत चुका है। यहां कोरोना का पहला मामला 15 मार्च को सामने आया था। तब से अब तक राज्य ने इस मोर्चे पर तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं। लेकिन ठोस रणनीति, बेहतर सूझबूझ और कुशल प्रबंधन के बल पर आज उत्तराखंड काफी हद तक सुकून में है।
कोरोना की दस्तक होने के साथ यह उम्मीद थी कि यहां संक्रमण सीमित और पर्वतीय जिले इससे अटूते रहेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ। शुरुआती दौर में संक्रमण को लेकर स्थिति नियंत्रण में थी, लेकिन जमातियों के यहां पहुंचने के बाद से मामले तेजी से बढ़ने शुरू हो गए और ग्राफ ऊपर चढ़ गया। फिर किसी तरह से हालात पर काबू पाया, लेकिन लकडाउन-3 में मिली टूट के बाद प्रवासियों के लौटने का सिलसिला शुरू हुआ, तो कोरोना वायरस का प्रसार कई गुना बढ़ गया। स्थिति दिनोंदिन भयावह होती चली गई।
यहां तक कि शुरुआती दौर में कोरोना मुक्त रहे प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र भी एक-एक कर इस बीमारी की जद में आ गए। जुलाई शुरू होते-होते स्थिति फिर सामान्य होने लगी थी। एक बारगी यह लगने लगा कि उत्तराखंड में जल्द ही हालात नियंत्रण में आ जाएंगे। पर यह उम्मीद कुछ ही दिन तक रही। लकडाउन खत्म हुआ और अनलक शुरू। तमाम रियायतों का प्रतिकूल असर होने लगा और जुलाई मध्य में कोरोना की रफ्तार एकाएक बढ़ गई। वायरस ने सबसे ज्यादा सितम ढाया सितंबर माह में। यह महीना ऐसा था जब हर दिन हजार से ऊपर लोग संक्रमित मिलने लगे। केंद्र सरकार के निर्णय के विरोध में आज और कल (15 व 16 मार्च) बैंक कर्मी देशव्यापी आंदोलन करेंगे।
यही नहीं इस दरमियान पजीटिविटी दर भी 9 फीसद से ऊपर पहुंच गई। अक्टूबर में स्थिति नियंत्रण में आई, पर मामले कम होने से लोग बेफिक्र होने लगे। बाजार, शादी-समारोह व सामूहिक आयोजनों में एक-एक कर सारे नियम टूटते चले गए। विशेषज्ञों ने चेताया भी कि कोरोना अभी खत्म नहीं हुआ है। सघ्दयों का मौसम वायरस के लिए ज्यादा अनुकूल है। नियम टूटे तो इसका प्रसार और तेज होगा, पर लोगों ने इस बात को बहुत ही हल्के में लिया। जिसका असर दिखा और दिसंबर में मामले तेजी से बढने लगे। पर मार्च आते-आते स्थिति काफी हद तक नियंत्रण में आ गई है। पर जानकार मान रहे हैं कि अभी वक्त बेफिक्र होने का नहीं है। कोविड प्रोटोकल को लेकर लापरवाही यहां भी महाराष्ट्र, पंजाब जैसे हालात पैदा कर सकती है।
राज्य में कोरोना के आंकड़ों का अध्ययन कर रही संस्था सोशल डेवलपमेंट फर कम्यूनिटी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल के अनुसार टीकाकरण के रूप में एक उम्मीद भरी पहल जरूर हुई है, पर यह महामारी का अंत नहीं है। टीकाकरण एक लंबी प्रक्रिया है और इस बीच शारीरिक दूरी बनाए रखना, मास्क पहनना, भीड़ से बचना और नियमित रूप से अपने हाथ सैनिटाइज करते रहना बहुत ही जरूरी है। याद रखिए कि कोरोना के खिलाफ जंग में बचाव की बहुत अहमियत है। इसमें जरा भी चूक हुई तो हालात फिर बिगडने लगेंगे। कोरोना के आंकड़े बीच-बीच में इसका संकेत दे भी रहे हैं।
उत्तराखंड को कोरोनाकाल से कुछ सबक भी मिले हैं। इनमें एक है स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढांचे को लेकर। नौटियाल का कहना है कि जब कोरोना चरम पर था, तब निजी अस्पताल लगभग बंद थे। राज्य की पूरी आबादी सरकारी अस्पतालों पर निर्भर थी। एक दौर ऐसा भी आया जब अस्पतालों में बेड कम पडने लगे थे। ऐसे में राज्य सरकार को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर गंभीरता से काम करना होगा।
लकडाउन वह दौर था जब लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे थे, पर चिकित्सक व अन्य स्वास्थ्य कर्मी अपनी जान जोखिम में डालकर अस्पतालों में मरीजों का इलाज कर रहे थे। वहीं पुलिस व प्रशासन के अधिकारी-कर्मचारी भी सड़कों पर उतर अपनी ड्यूटी कर रहे थे। इसके अलावा विभिन्न संगठन और कई नागरिक जरूरतमंदों तक राशन, दवा और जरूरी सामान पहुंचाने में काम में लगे थे। कोरोना के खिलाफ जंग में जिस मुकाम पर हम आज हैं, वह इन्हीं की बदौलत है।